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तन्मयीपनेसे नहीं जानता, भिन्नस्वरूप जानता है, इस कारण व्यवहारनयसे कहा, कुछ ज्ञानके अभावसे नहीं कहा । ज्ञानकर जानपना तो निज और परके समान है जैसे अपनेको संदेह रहित जानता है, वैसा ही परको भी जानता है, इसमें संदेह नहीं समझना, लेकिन निज स्वरूपसे तो तन्मयी है, और परसे तन्मयी नहीं। और जिस तरह निजको तन्मयी होकर निश्चयसे जानता है, उसी तरह यदि परको भी तन्मय होकर जाने, तो परके सुख-दुःख, राग-द्वषके ज्ञान होने पर सुखी, दुःखी, रागी, द्वेषी होवे, यह बड़ा दूषण है । सो. इसप्रकार कभी नहीं हो सकता। यहां जिस ज्ञानसे, सर्वव्यापक कहा, वही ज्ञान उपादेय अतीन्द्रियसुखसे अभिन्न है, सुखरूप है, ज्ञान और आनंदमें भेद नहीं है, वही ज्ञान उपादेय है, यह अभिप्राय जानना । इस दोहामें जीवको ज्ञानकी अपेक्षा सर्वगत कहा है ।।५२।।
अथ येन कारणेन निजबोधं लब्ध्वात्मन इन्द्रियज्ञानं नास्ति तेन कारणेन जढो भवतीत्यभिप्रायं मनसि धृत्वा सूत्रमिदं कथयति- . .
जे णिय-बोह-परिट्ठियहँ जीवहँ तुट्टइ णाणु । इदिय-जणियउ जोइया ति जिउ जडु वि वियाणु ॥५३॥
येन निजबोधप्रतिष्ठितानां जीवानां त्रुटयति ज्ञानम् ।
इन्द्रियजनितं योगिन् तेन जीवं जडमपि विजानीहि ।।५।।
आगे आत्म-ज्ञानको पाकर इन्द्रिय-ज्ञान नाशको प्राप्त होता है, परमसमाधिमें आत्मस्वरूपमें लीन है, परवस्तुकी गम्य नहीं है, इसलिये नयप्रमाणकर जड़ भी है, परन्तु ज्ञानाभावरूप जड़ नहीं है, चैतन्यरूप ही है, अपेक्षासे जड़ कहा जाता है, यह अभिप्राय मनमें रखकर गाथा-सूत्र कहते हैं-(येन) जिस 'अपेक्षा (निजबोधप्रतिष्ठितानां ) आत्म-ज्ञान में ठहरे हुए (जीवानां) जीवोंके (इंद्रियजनितं ज्ञानं) इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुआ ज्ञान (त्रुटयति) नाश को प्राप्त होता है, (हे योगिन्) हे योगी, (तेन) उसी कारणसे (जीव) जीवको (जड़मपि) जड़ भी (विजानीहि) जानो।
भावार्थ-महामुनियोंके वीतरागनिर्विकल्प-समाधिके समयमें स्वसंवेदनज्ञान होनेपर भी इन्द्रियजनित ज्ञान नहीं है, और केवलज्ञानियोंके तो किसी समय भी इन्द्रियज्ञान नहीं है, केवल अतीन्द्रियज्ञान ही है, इसलिये इन्द्रिय-ज्ञानके अभावकी अपेक्षा