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________________ श्री पार्श्वनाथ स्तुति २०५ के महात्म्य के स्थान व ( श्रद्भुतं ) प्राश्चर्यरूप ( ग्रचिन्त्यम् ) चितवन में न श्राने योग्य ( अर्हन्त्यपदम् ) अरहन्त पद को (ग्रवापत् ) प्राप्त कर लिया । भावार्थ -- उपसर्ग के हटते ही प्रभु ने १० वें सूक्ष्मलोभ गुणस्थान के अन्त में मोहनीय कर्म को प्रथम शुक्लध्यान की खड़गधार से क्षय कर डाला, फिर बारहवें क्षीण मोह गुणस्थान में एक अंतमुहूर्त ठहरकर दूसरे शुक्लध्यान की तलवार से एक साथ ज्ञानाचरण, दर्शनावरण व अन्तराय इन तीन घातीय कर्मों का नाश किया व अनन्त ज्ञान, अनंत दर्शन, अनन्तवीर्य, क्षायिक सस्यवत्व, क्षायिक चारित्र व अनन्त सुख को प्रकाश कर तेरहवें सयोगकेवली गुणस्थान में अरहन्त पद को प्राप्त किया जिसकी महिमा परम प्रद्भुत है, जो चिन्तवन में ही नहीं आ सकती है व जिस पद को तीन लोक के प्रारणी पूजते हैं । प्राप्त स्वरूप में अरहन्त का स्वरूप कहा है- श्रर्हन् प्रजापतिर्बुद्धः परमेष्ठी जिनोऽजितः । लक्ष्मीभर्ता चतुर्वक्त्रो केवलज्ञानलोचनः || ४५|| भावार्थ -- प्ररहन्त भगवान सब प्रजा के स्वामी, परम बुद्ध, परम पद में स्थित, कर्म विजयी, महावीर अजित, समवसरण लक्ष्मी के धर्ता, केवलज्ञान नेत्र के धारी व सभा में चारों तरफ सबको दिखने वाले ऐसे होते भए । पद्धरी छन्द प्रभु ध्यानमई प्रसि तेजघार, कीना दुर्जय मोह प्रहार | त्रैलोक्य पूज्य प्रद्भुत अचिन्त्य, पाया अरहन्त पद ग्रात्मचिन्त्य ॥। १३३ ।। उत्थानिका --- ऐसे प्रभावशाली श्री पार्श्वनाथ को देखकर वनवासी तपसी अपने असत् मार्ग को फल रहित जानकर भगवान के मार्ग की इच्छा करते भए, ऐसा कहते हैं यमीश्वरं वीक्ष्य विधूतकल्मषं तपोधनास्तेऽपि तथा बुभूषवः । वनौकसः स्वश्रमवन्ध्यबुद्धयः शमोपदेशं शरणं प्रपेदिरे ।। १३४ ॥ प्रस्वयार्थ - (यं विद्युतकल्मषं ईश्वरें ) जिन घाति कर्म रहित परमात्मा पार्श्वनाथ के महात्म्य को ( वीक्ष्य ) देखकर ( वनौकस: ) वन में रहने वाली ( तेऽपि तपोधनाः ) griant तपस्वी भी ( स्वश्रमवन्ध्यबुद्धयः ) सपने मिथ्या तप से फल न होता जानकर
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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