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स्वयंभू स्तोत्र टीका। होकर आपने सुख से तृष्णा नदी को पार कर लिया । अर्थात् अव आप परम कृतकृत्य हो गए । आपके कोई इच्छा शेष न रही । वास्तव में तृष्णा ही संसार को भूल है। सार समुच्चय में कहा है
तृष्णानलप्रदीप्तानां सुसौख्यं तु कुती नृणाम् । दुःखमेव सदा तेषां ये रता धनसंचये ॥२४॥
भावार्थ--जो मानव तृष्णा की अग्नि से जलते रहते हैं उनको सुख कहां से हो । सकता है । उनको सदा ही दुःख है जो धन के संचय में ही अवलीन हैं ।
पद्धरी छन्द तृष्णा सरिता अति ही उदार, दुस्तर इह परभव दुःखकार ।.
विद्या नौका चढ रागरिक्त, उतरे तुम पार प्रभू विरक्त ।। ६२॥ उत्थानिका-मोह काम व तृष्णा का नाश कर देने पर फिर क्या हुआ सो कहते
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अन्तकः कन्दको नृणां जन्मज्वरसखा सदा । स्वामंन्तकान्तक प्राध्य व्यावत्तः कामकारतः॥३॥
अन्वयार्थ-[ अन्तकः ] मरणरूपोयमराज (नृणा) प्रारिणयों को (क्रन्दकः, रुलाने वाला है (सदा) व सदा (जन्मज्वरसखा) जन्म व जरा उसके दो मित्र हैं वह (वा) प्राप (अन्तकान्तकं) मरण रूपी यमराज के नाश करने वाले प्रभु को (प्राप्य) प्राप्त होकर प्रर्थात श्रापके पास प्राकर, (कामकारतः ) अपनी इच्छा रूपी क्रिया करने से ( व्यावृत्तः । रहित होगया ।
भावार्थ--सर्व संसारी प्राणियों को यमराज नाश कर देता है। जब भरण पाता है तब सर्व ही मिथ्यादृष्टी प्राणी धबड़ाते हैं व रोते हैं। मरण के दो मित्र हैं- जन्म और जरा अर्थात् जब जरा सताती है तब शीघ्र ही वह मरण को वला लेती हैं। तथा मरण के पीछे जन्म भी अवश्य होता है। मरण के पीछे २ जन्म उसका मित्र आ जाता है । इस तरह संसारी प्राणी जन्म जरा मृत्यु से सवा पीड़ित रहते हैं। आपके पास यह यमराज अपना कुछ भी काम न कर सका । न यह स्वयं प्राक्रमण कर सका। न इनके मित्रों का ही वश आपसे चला । आपको जरा कुछ भी पीड़ा न देसकी। आप सवा नदयौवन रहे ।