________________
१६२
स्वयंभू स्तोत्र टीका
आपने सर्व चक्रवर्ती की सम्पदा को जीर्ण तृरण के समान असार जानकर त्याग दिया और आप सर्व परिग्रह त्यागकर दि० निर्ग्रन्थ मुनि होगये । मुक्ति साधन के लिये परिग्रह त्याग जरूरी है । ऐसा सारसमुच्चय में श्री कुलभद्र आचार्य कहते हैं-
सगात्संजायते गृद्धिगृद्धो वांछति संचयम् । सचयाद्वर्धते लोभो लाभाद्द् ः खपरम्परा ॥२३२॥ भावार्थ- परिग्रह से लोलुपता पैदा होती है, गृद्धता होने पर संचय करने की वाञ्छा होती है, संचय करने से लोभ बढ़ता है, लोभ से परम्परा दुःख की प्राप्ति होती है ।
पद्धरी छन्द ।
तुम मोक्ष चाह को घार नाथ, जो भी लक्ष्मी सम्पूर्ण साथ।
सब चक्र चिह्न सह भरत राज्य, जीरण तृणवत् छोडा सुराज्य ||
उत्थानिका -- इस तरह अन्तरंग के परम वीतरागभाव को दिखलाकर आपके शरीर की शोभा को दिखलाते हैं
तव रूपस्य सौन्दर्यं दृष्ट्वा तृप्तिमनापिवान् । द्वयक्षः शक्रः सहस्राक्षो बभूव बहुविस्मयः ॥ ८६॥
अन्वयार्थ - ( तव रूपस्य सौन्दर्यं ) आपके वीतरागमई शरीर की को सुन्दरता ( दृष्ट्वा ) देखकर ( वयक्षः ) दो प्रांखधारी ( शक्रः ) इन्द्र ( सहस्राक्षः ) एक हजार लोचन बनाकर देखता हुआ भी ( तृप्ति ) तृप्ति को ( अनापिवान् ) न प्राप्त करता हुग्रा किन्तु ( बहुविस्मयः बभूव ) बहुत आश्चर्य को प्राप्त हुआ ।
भावार्थ - इन्द्र के यद्यपि मूल में दो ही प्रांख होती हैं परन्तु उसने जब ग्रापके शरीर के मनोहर रूप को देखा तो उसको दो आंखों से तृप्ति न हुई । तब उसने अपने एक हजार नेत्र बनाए । इन्द्रादि देवों में विक्रिया करने की शक्ति होती है, इससे वे एक शरीर के अनेक शरीर बना सकते हैं और उन सबमें अपने आत्मा के प्रकाश को फैला देते हैं । इस तरह अनेक शरीर बनाकर भी इन्द्र ने एक हजार नेत्रों से श्राप के रूप को खूब देखा तो भी उसके मन को तृप्ति न हुई । तब उसको बड़ा भारी श्राश्चर्य हुआ कि जगत में ऐसा रूप सिवाय साधुपदधारी तीर्थंकर के और किसी के होना सम्भव नहीं हैं । तीर्थङ्कर के पूर्व पुण्य की महिमा है ।