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स्वयंभू स्तोत्र टीका
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नाराच छन्द ।
परम प्रताप घर ज शांतिनाथ राज्य बहु किया । महान शत्रु को विनाश सर्व जन सुखी किया । यतीश पद महान धार दया मूर्ति बन गए । पाप ही से प्रापके कुपाप सब शमन भए ।।७६।।
उत्थानिका--भगवान ने राज्य अवस्था में जैसी विजय की वैसी ही विजय साधु पद में की, ऐसा कहते हैं।
चक्रेण यः शत्रुभयंकरण, जित्वा नृपः सर्वनरेन्द्र चक्रम् । समाधिचक्ररण पुजि गाय, महोदयो दुर्जयमोहचक्रम् ॥७७॥
अन्वयार्थ-( यः नृपः ) जिस महाराज ने (शत्रुभयंकरेण चक्रण) शत्रुओं को भयदाई चक्र के प्रताप से (सर्व-नरेन्द्र चक्रम्) सर्व राजाओं के समूह को (जित्वा) जीतकर चक्रवर्ती पद प्राप्त किया था ( पुनः ) पश्चात् साधुपद में ( समाधिचक्रण ) आत्मध्यान रूपी चक्र से (दुर्जयमोहचक्रम्) जिसका जीतना कठिन है ऐसे मोह के चक्र को (जिगाय) जीत करके (महोदयः) महानपने को प्राप्त किया।
भावार्थ~-यहां यह बताया है कि जो लौकिक कार्यों में वीर होता है वही परमार्थ में भी वीर होता है। श्री शांतिनाथ ने भरतक्षेत्र की छः खण्ड पृथ्वी सुदर्शन चक्र रूपी दिव्य शस्त्र के प्रभाव से वश की और चक्रवर्ती पद का नि:कंटक राज्य किया । बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजाओं पर अपना आधिपत्य जमाया था। वही सम्राट जब वैराग्यवान हए तब साधपद में प्रमाद भाव त्यागकर निश्चल हो ऐसा एकाग्र आत्मध्यान किया कि जिसके प्रताप से अनादिकाल से चले आए हए व संसार में जीव को भ्रमण का मूल कारण ऐसे मोह रूपी शत्रु का संहार कर डाला । प्रभु क्षपक श्रेणी पर प्रारूढ़ हुए और दसवें गुणस्थान के अन्त में मोह का एक परमाणु भी अपने साथ शेष नहीं रखा । मोह का नाश होते ही और कर्मों की सेना तर्त जीत ली जाती है । एक अन्तमुहूर्त क्षीरण मोह नाम बारहवें गुरणस्थान में विश्राम करके प्रभु के ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मों का भी एक साथ क्षय कर डाला और तेरहवें सयोग केवली जिन गुणस्थान में पहुंच कर परमात्मा हो गए । वास्तव में वीतराग विज्ञानमय ध्यान में अपूर्व शक्ति है। बड़े २ पाप ध्यान से गल जाते हैं। इस ध्यान में वह शक्ति है जो अन्तर्मुहूर्त तक लगातार हो जाये तो उतनी ही देर में यह जीव केवलज्ञानी हो सकता है।