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श्री धर्मनाथ स्तुति
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गंगा नदी ही आपकी सेवा दोनों तरफ से कर रही है । श्रापने तीन लोक के प्राणियों को वश में कर लिया है, वे सब बड़े २ पुरुष व नारियां आपके पास आकर एकत्र होगये हैं । इतनी सामग्री का संगम होते हुए बाप पूर्ण तरह से वीतराग हैं- प्रसंग हैं। क्या हो उपमा रहित पूर्व उदासीनता है ! परिग्रह और अपरिग्रह दोनों का संग अन्य किसी साधु में नहीं हो सकता परन्तु यह आपकी ही श्राश्चर्यकारी महिमा है जो दोनों ही बातें एक साथ चमक रही हैं ।
सृयिणी छन्द |
देव मानव भविकवृन्दसे से वितं, बुद्ध गणधर प्रपूजित महाशोभितं ।
जिस तरह चन्द्रमा नभ सुनिर्मल लसे, तारक। वेष्ठित शांतिमय हुल्लसे । ७२ ।
उत्थानिका - शंकाकार कहता है कि सिंहासनादि विभूति के होते हुये आपके वीतरागता कैसे हो सकती है व आप हरिहरादि से विशेष क्यों हैं इसी का समाधान करते हैं
प्रातिहार्यविभवैः परिष्कृतो देहतोऽपि विरतो भवानभूत् । मोक्षमार्गमशिषन्नरामरान्नापि शासनफलैषरणातुरः ॥७३॥
श्रन्वयार्थ - [ भवान् ] श्राप [ प्रातिहार्यविभवः ] सिंहासनादि प्राठ प्रातिहार्यो की विभूति से [ परिष्कृतः ] श्रृंगारित हो तथापि [ देहतः ग्रपि ] शरीर से भी प्राप [ विरतः प्रभूत् ] विरक्त हो । आप [ नरामरान् ] मानव व देवों को [ मोक्षमार्गम् ] रत्नत्रयमई मोक्ष मार्ग का [ प्रशिषन् अपि ] उपदेश करते हुये भी [ शासनफलैपरणातुरः न ] अपने उपदेश के फल की इच्छा से जरा भी प्रातुर न हुए ।
भावार्थ - सिंहासन, छत्र, चमर, शरीर प्रभा मण्डल, दुन्दुभि वाजों का वजना, पुष्पों की वृष्टि होना, अशोक वृक्ष का निकट होना तथा दिव्यध्वनि का प्रकाश इन प्रा प्रातिहार्यो से आप शोभायमान हैं तथापि ग्रापका राग इन पदार्थों में नहीं है । क्योंकि . आपने मोह कर्म का तो बिलकुल क्षय कर डाला है, श्राप तो पूर्ण वीतराग हैं | आपको अपने शरीर ही का कुछ राग नहीं है । तब और पर कैसे हो सकता है ? यह ग्रापकी अद्भुत वीतरागता है । इन्द्र अपनी भक्ति से समवसरण की रचना करता है । आपको
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