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श्री विमलनाथ जिन स्तुति
१२५ भी प्रगट है कि जीवपना जीवों में सामान्य धर्म है । अर्थात् जीव में जीवपना और अजीव पदार्थों की अपेक्षा विशेष है. परन्तु अन्य जीवों की अपेक्षा सामान्य है । अथवा जीव है इस वाक्य में अस्तित्वपना सामान्य है तथा जीवपना विशेष है । अर्थात् जगत में अनेक पदार्थों की सत्ता है। उनमें से जिसमें जीवपना है वह पदार्थ विशेष है। या हमने कहा कि यह जीव मानव है । इस वाक्य में मानवपना बताना विशेष है तब जीवपना सामान्य विशेषण है कि अनेक जीवों में यह जीव मनुष्य है । यहां भी स्यात् शब्द जुड़ा हुआ है चाहे फहें या न कहें । यह जीव मनुष्य है । यह वचन सर्वथा कहने से मिथ्या होगा,यह सदाकाल मनुष्य नहीं रहता है। परन्तु इस समय इसका शरीर मनुष्याकार है या यह मनुष्यपने की चेष्टा कर रहा है इसलिये यह मनुष्य है । यह जीव है यहां भी स्यात् शब्द है कि यह जोवपने की अपेक्षा से जीव है अजीवपने की अपेक्षा से नहीं है। इस तरह हरएक वाक्य किसी अपेक्षा से कहा जाता है, उस वाक्य में जिस किसी धर्म को मुख्य किया जाता है वह.वाच्य होकर निशेष हो जाता है दूसरा धर्म जो उस वस्तु में है वह विशेषगरूप रहता है। वस्तु सामान्य विशेषरूप हो है ऐसा अभिप्राय अनेकान्त मत का है सो ही यहां प्रकट किया है।
स्वामी ने प्रात्ममीमांसा में भी वचन का यह लक्षण बताया है· वाकस्वभावोऽन्यवागर्थप्रतिषेधनिरंकुशः । प्राह च स्वार्थसामान्यं,तादृग्वाच्यं खपुष्पवत् ॥१११।।
- भावार्थ--वचन का स्वभाव यह है कि वह जिस कथन को मुख्य करना चाहता है उसको तो स्पष्ट कहता है और दूसरे भाव को जो उससे विरुद्ध हो उसको निराकरण करने में स्वच्छन्द रहता है । जैसे कहा कि घट है. इम वचन ने घट का अस्तित्व तो बताया तब यह पटादि नहीं है यह भी बताया । अर्थात् वचन स्व-वाच्य को बताता है पर-वाच्य का निषेध करता है. इसलिए वचन अनेकांत होता है। यदि कोई कहे कि वचन सामान्य को ही बताता है किसी विशेष को नहीं बताता है तो ऐसा कहना अाकाश के पुष्प के समान होगा; क्योंकि विशेष के बिना सामान्य है ही नहीं न ऐसा वचन ही हो सकता है । पदार्थ सामान्य विशेषरूप हैं।
. ( नोट ) इस श्लोक का भाव जैसा समझ में पाया वैसा लिखा है भाव बहुत गम्भीर है, यदि कुछ अन्यथा समझा हो तो विद्वज्जन विचार करके व मून श्लोक को ब उसकी संस्कृत टीका को विचार करके ठीक करलें व मुझे क्षमा करें।