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श्री विमलनाथ स्तुति
श्रयमर्थो वस्तुतया सत्सामान्यं निरंशकं यावत् । भक्त तदिह विकल्पैद्रव्याद्य रुच्यते विशेषश्च ।। २८२ ।।
भावार्थ - - वही सत् पदार्थ सत्ता की सामान्यता से बिना भेद के एकरूप ही सदा फलकता है, उसी में जब द्रव्य गुरण पर्याय आदि के भेद किये जाते तब वही विशेषरूप कहा जाता है । वस्तु सामान्य विशेषरूप भिन्न २ अपेक्षा से है और वैसा ही उसका स्वरूप
झलकला
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श्रपि निरपेक्षा मिथ्यास्त एव सापेक्ष का नयाः सम्यक | अविनाभावत्वे सति सामान्यविशेषयोश्च सापेक्षात् ॥ ५६० ।।
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भावार्थ- नय बिना अपेक्षा के मिथ्या होते हैं वे ही अपेक्षा सहित सत्य होते हैं । वस्तु में सामान्य और विशेष का श्रविनाभावीपना है। जहां सामान्य धर्म है वहां विशेष है जहाँ विशेष है वहां सामान्य है । उन दोनों को सिद्धि भिन्न २ अपेक्षा से होती है ।
भुजङ्गप्रयास छन्द
हरएक वस्तु सामान्य और विशेष अपेक्षा कृत भेद प्रभेद सुलेखं ।
यथा ज्ञान जगमें वही है प्रमाण लखे एकदम श्रापपर तुम दखानं ।। ६३ ।।
उत्थानिका शिष्य शङ्का करता है कि विशेष्य तथा विशेषरण किसे कहते हैं । श्राचार्य समाधान करते हैं---
विशेष-वाच्यस्य विशेषणं वचो, यतो विशेष्यं विनियम्यते च यत् । तयोश्च सामान्यमतिप्रसज्यते, विवक्षितत्स्यादिति तेऽन्यवर्जनम् ॥
अस्वयार्थ--यहां यह बताते हैं कि वस्तु में सामान्य तथा विशेष दो धर्म मौजूद हैं। जब सामान्य वाच्य होगा तब विशेष धर्म उसका विशेषण होगा। जब विशेष वाच्य होगा तब सामान्य विशेषरण होगा। दोनों का रहना एक वस्तु में प्रवश्य होगा । ( यतः यत् विशेष्यं च विनियम्यते) जिससे जिस विशेष्य का नियम किया जाता है वह ( वचः ) वचन ( विशेष्यवाच्यस्य ) विशेष्य जो वाच्य है अर्थात् जिसको खास करके बताना है उसका (विशेषण) विशेषरण होता है । ( तयोः च सामान्यं प्रतिप्रसज्यते ) विशेषण तथा विशेष्य