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स्वयंभू स्तोत्र टीका
छन्द मालनी
एकांत मतों के चूर्ण करता तिहारे, न्यायभई वाण मोहरिपु जिन सहारे । तुम ही तीर्थंकर केवल ऐश्वर्यं घारी, ताते तेरी ही, भक्ति करनी विचारी ॥
(१२) श्री वासुपूज्य
स्तुतिः
शिवासुपूज्योऽभ्युदय क्रियासु त्वं वासुपूज्यस्त्रिदशेन्द्र पूज्यः । मयापि पूज्योऽल्पधिया सुनीन्द्र ! दीपचिषा कि तपनो न पूज्यः ॥ ५६ ॥
अन्वयार्थ - ( मुनीन्द्र ) बे गरणधरदेवादि मुनियों के स्वामी ! ( त्वं ) श्राप (वासुपूज्यः) वसुपूज्य क्षत्री राजा के पुत्र द्वारहवें तीर्थङ्कर श्री वासुपूज्य स्वामी ( शिवामु श्रभ्युदयक्रियासु ) शोभनीक गर्भ जन्म तप श्रादि कल्याणकों की क्रियानों में [ पूज्यः ] पूजे गये हो [ त्रिदशेन्द्रपूज्यः ] और इन्द्रादि देव व बड़े २ महान सम्राटों से पूज्यनीय हो तब ( मया अल्पविया ) मुझ तुच्छ बुद्धि समन्तभद्र से भी ( पूज्यः ) पूज्यनीक हो ( दीपाचिपा ) दीपक की ज्योति से ( किं ) क्या ( तपनः ) सूर्य ( पूज्यः न ) पूजा नहीं जाता है ।
भावार्थ - यहां भी श्री वासुपूज्य के नाम का सार्थकपना दिखाया है कि जगत में ऐसा कोई पुण्यात्मा, जिसके गर्भ जन्म तप ज्ञान व निर्वारण कल्याणकों में ( इन्द्रादि देयों ने) महान उत्सव किये हों, ग्रापही एक तीथंङ्कर देव है । आपको बड़े-बड़े गरदेव श्रावि साधु, देवों के इन्द्र, मानवों के स्वामी राजा ग्रादि सर्व ही परम पूज्यनीक समझकर पूजते हैं । इसीलिये कि आप अलौकिक परमात्मा या प्ररहन्त पद को पहुंच गए हो । ग्राप सर्व दोषों से रहित सर्वज्ञ वीतराग होगए हैं। श्री समन्तभद्राचार्य कहते हैं कि मैंने भी प्रापको हो पूज्यनीक जाना है, क्योंकि श्राप ही सूर्य के समान परम प्रतापी केवलज्ञानमई प्रमिट प्रकाशके धारी हैं । तथापि मेरी पूजा जगतमें हास्यका हेतु हो सकती है; क्योंकि तो बहुत ही अल्पबुद्धि हूँ, में किस तरह श्रापका गुरण स्तवन करके पूजा कर सकता हूँ, तथापि भक्ति के वश करता ही हूं। जैसे रूढ़ि में लोग सूर्य को देवता मानके पूजते हैं तब दीपक साक्षर उससे प्रारती उतारते हैं। जो दीपक की लौ प्रति तुच्छ होती है, जरासी पदन की प्रेर