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[ १५ ] . भरतादि बड़े-बड़े श्रोताओंमेंसे भरतचक्रवर्तीने श्रीऋषभदेव भगवानसे पूछा, सगरचक्रवर्तीने श्रीअजितनाथसे, रामचन्द्र बलभद्रने देशभूषण कुलभूषण केवलीसे तथा सकलभूषण केवलीसे, पांडवोंने श्रीनेमिनाथभगवान्से और राजा श्रेणिकने श्रीमहावीर स्वामीसे पूछा । कैसे हैं ये श्रोता जिनको निश्चयरत्नत्रय और व्यवहाररत्नत्रयकी भावना प्रिय है, परमात्माकी भावनासे उत्पन्न वीतराग परमानन्दरूप अमृतरसके प्यासे हैं, और वीतराग निर्विकल्पसमाधिकर उत्पन्न हुआ जो सुखरूपी अमृत उससे विपरीत जो नारकादि चारों गतियोंके दुःख, उनसे भयभीत हैं। जिस तरह इन भव्य जीवोंने भगवन्तसे पूछा, और भगवन्तने तीन प्रकार आत्माका स्वरूप कहा, वैसे ही मैं जिनवाणीके अनुसार तुझे कहता हूं। सारांश यह हुआ, कि तीन प्रकार आत्माके स्वरूपोंसे शुद्धात्म स्वरूप जो निज परमात्मा वही ग्रहण करने योग्य है। जो मोक्षका मूलकारण रत्नत्रय कहा है, वह मैंने निश्चयव्यवहार दोनों तरहसे कहा है, उसमें अपने स्वरूपका श्रद्धान, स्वरूपका ज्ञान, और स्वरूपका ही आचरण यह तो निश्चयरत्नत्रय है, इसीका दूसरा नाम अभेद भी है, और देव गुरू धर्मकी श्रद्धा, नवतत्त्वोंकी श्रद्धा, आगमका ज्ञान तथा संयम भाव ये व्यवहार रत्नत्रय हैं, इसीका नाम भेदरत्नत्रय है। इनमेंसे भेद रत्नत्रय तो साधन हैं और अभेदरत्नत्रय साध्य हैं ॥११॥ .
अथ त्रिविधात्मानं ज्ञात्वा बहिरात्मानं विहाय स्वसंवेदनज्ञानेन परं परमात्मानं भावय त्वमिति प्रतिपादयति
अप्पा ति-विहु मुणेवि लहु मूढउ मेल्लहि भाउ।। मुणि सण्णाणे णाणमउ जो परमप्प-सहाउ ॥१२॥
आत्मानं त्रिविधं मत्वा लघु मूढं मुञ्च भावम् ।
मन्यस्व स्वज्ञानेन ज्ञानमयं यः परमात्मस्वभावः ।।१२।।
आगे तीन प्रकार आत्माको जानकर बहिरात्मपना छोड़ स्वसंवेदन ज्ञानकर .. तू परमात्माका ध्यानकर, इसे कहते हैं-(आत्मानं त्रिविधं मत्वा ) हे प्रभाकरभट्ट, त
आत्माको तीन प्रकारका जानकर (मढं भावं) बहिरात्म स्वरूप भावको (लघ) शीघ्र ही (मुञ्च) छोड़, और (यः) जो (परमात्मस्वभावः) परमात्माका स्वभाव है, उसे (स्वज्ञानेन) स्वसंवेदनज्ञानसे अन्तरात्मा होता हुमा ( मन्यस्व ) जान । वह स्वभाव (ज्ञाननयः) केवलज्ञानकर परिपूर्ण है ।