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स्वयंभू स्तोत्र टीका कमल (जगदीश्वराणां)जगत के ऐश्वर्यधारी इन्द्र, चक्रवर्ती,धरणेन्द्र आदि से (अभिवन्द्य) बार २ वन्दने योग्य हैं (मम अपि) और मुझ समन्तभद्र से भी इसीलिए वंदनीय हैं ।
___ भावार्थ-यहां यह बताया है कि जैसे पहले श्लोक में वृक्ष शब्द सामान्य व विशेष दोनों ही वस्तु के स्वभाव का द्योतक है वैसे ही आपकी स्याद्वादवारगी के जो वाक्य हैं वे भी अनेक धर्म स्वरुप पदार्थ को बताने वाले हैं। जैसे यह कहा जाय कि 'स्यात् वस्तु नित्यं ।' यह वाक्य बताता है कि किसो अपेक्षा से अर्थात् सामान्य गुणों की व द्रव्य को प्रतीति की दृष्टि से पदार्थ अविनाशी रहता है उसी समय वह वाक्य यह भी बुद्धिमान के भीतर ज्ञान कराता है कि पर्याय पलटने की अपेक्षा वस्तु अनित्य है । यदि पक्षपात छोड़कर देखा जायगा तो वस्त नित्य व अनित्य रूप हरएक समय में झलकेगी । न तो वह सर्वथा नित्य है न वह सर्वथा अनित्य है । यही आपका सच्चा दर्शन है व ऐसा ही आपके वाक्यों से प्रगट है। इसीलिये प्रापका वचन परम माननीय है। जो दर्शन वस्तु को एकान्तरूप ही मानते हैं अर्थात कोई सर्वथा नित्य व कोई सर्वथा अनित्य व कोई मात्र सामान्य व कोई मात्र विशेषरूप इत्यादि रूप ही कहते हैं उनको यह स्याद्वाद मत पथ्य नहीं होता है । से सहन नहीं करके उल्टा विरोध करते हैं और यह कहते हैं कि यह तो संशय वाद है। व उसी को नित्य व उसी को अनित्य कहना विरोधरूप है। वे यथार्थ दष्टि से देखते नहीं। यदि देखें तो उनको अपना एकान्तमत छोड़ना पड़े। इस एकान्त के मोह से अनेकान्त को ठीक २ समझने की कोशिश तो करते नहीं उल्टा विरोध करते हैं। तथापि श्री समन्तभद्र प्राचार्य कहते हैं कि आपके अपूर्व वाक्यों से हो मोहित होकर आपको जगत के नायक इन्द्रादिदेव नमस्कार करते हैं। और मैं भी इसीलिये आपको नमन करता हूँ। धन्य है स्वामी ! आप ही यथार्थ वक्ता हैं। श्रीवादिराज मुनि जिनेन्द्र की स्तुति करते हुए कहते
कुतस्त्यो विरोधादिदोषावकाशो, ध्वनि: स्यादिति स्वादही यत्प्रकाशा ।
इतीत्थं वदन्ति प्रमाणादरिद्र भजेह जगज्जीवनं श्रीजिनेन्द्र ॥५॥
भावार्थ-मैं जगत के प्राणियों के रक्षक श्री जिनेन्द्र भगवान का भजन करता हूँ जिनकी ध्वनि से स्याहाद नय के द्वारा यस्तु का प्रकाश है, उसमें कोई विरोध संशय प्रादि दोषों को जरा भी जगह नहीं है। जिनका वचन प्रमाणनत है। उसमें यथायं प्रमाण का --- --