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स्वयंभू स्तोत्र टीका है वह ( स्यात् इति निपातः वै ) स्यात् ऐसा अवयव पद जोड़ के प्रगटपने कहता है। जिससे यह सिद्ध होता है कि किसी अपेक्षा से वस्तु एक रूप है ऐसा कहने से वस्तु अनेक रूप भी है, ऐसा भी सुनने वाले को गौरणता से ज्ञान होता है, मुख्यता से एक स्वरूप का ज्ञान होता है। स्यात् शब्द का यह नियम है कि वह जिसको प्रधान करके बताता है उसका तो नाम लेता है तब दूसरे धर्म को गौरगता से बताता है ( गुणानपेक्षे अनियमे अपवादः) यदि गौरण धर्म की अपेक्षा न हो ऐसा अनियमित हो तो बाधा रूप हो अर्थात् अपेक्षा बिना ज्ञान ठीक न हो । अपेक्षा के नियम से सब ठीक हो जाते हैं। .
भावार्थ-इस श्लोक में बताया गया है कि जैसा वस्तु का अनेकान्त रूप स्वभाव है वैसा वचनों से व पागम से भी सिद्ध है । जैसा आगम ने कहा कि वस्तु एक तथा अनेक रूप है, तब इन पदों से बोध होगा कि जीवादि पदार्थ सामान्य विशेष रूप है। जीव द्रव्य अपेक्षा सामान्य है, व एक है, विशेष अपेक्षा विशेष है व अनेक रूप है । जीव चेतना लक्षण वाले हैं, ऐसा जीव सामान्य का बोध होते भी विशेष का भी संकेत होता है कि जीव विशेष २ रूप हैं । कोई मानव है,कोई पशु है, कोई पक्षी है। अथवा जीव सामान्य से जीव द्रव्य का बोध होता है। वही जीव अपने अनेक गुरग व पर्यायों की अपेक्षा अनेक रूप है, ऐसा बोध होता है। यहां वृक्षादि का दृष्टान्त दिया है। वृक्ष शब्द जब वृक्ष सामान्य को बताता है तब वह यह भी झलकाता है कि वृक्ष विशेष भी होते हैं। प्राम, खजूर, संतरे व अनार आदि के । इससे यह बात यहां बताई है कि वस्तु एक व अनेक रूप है व सामान्य विशेष रूप है, ऐसा ही पागम कहता है। शिष्य को समझाने के लिये जो प्रवीण पुरुष उद्यम करता है वह इस तरह कहता है-स्यात् एकं स्यात् अनेकं । स्यात् शब्द किसी अपेक्षा विशेष को बताता है कि सामान्य को अपेक्षा वस्तु एकरूप है व विशेष की अपेक्षा वस्तु अनेक रूप है । स्यात् शब्द के प्रयोग का ऐसा नियम है कि जिसका नाम लिया जावे उसको मुख्य करता है व जिसका नाम न लिया गया उसको गौरण करता है। यदि ऐसा नियम न हो व गौरण की अपेक्षा न हो तव तो वाधा आवे । स्यात् शब्द न जोड़ा जावे तव अपेक्षा बिना भ्रम रहे कि किस अपेक्षा से एकरूप है व किस अपेक्षा से अनेक रूप है। स्यात् शब्द सब बाधा को मेट देता है । प्रवीण पुरुष आपस में बात करते हुए स्यात् शब्द न भी बोलें तब भी परस्पर समझ जाते हैं कि इस अपेक्षा से यह वाक्य कहा गया है। जैसे---यह कहा जावे कि जीव अविनाशी है । तब प्रवीण श्रोता सगझ जाते हैं कि स्यात जीवजीव अविनाशी है । अर्थात् द्रव्य की अपेक्षा से जीव अविनाशी है पर्याय की अपेक्षा