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________________ ७२ स्वयंभू स्तोत्र टीका. भावार्थ-हे जिनेन्द्र श्राप ही दोष रहित हैं क्योंकि आपका वचन युक्ति व प्रागम से विरोध रूप नहीं है । आपका मत प्रसिद्ध प्रमाण से बाधा को नहीं पाता है इसलिये विरोध रहित है। आपके मत रूपी अमृत से जो बाहर हैं व सर्वथा एकान्तवादी हैं पौर हम यथार्थ वक्ता हैं इस अभिमान से दग्ध हैं उनका मत प्रमाण से बाधा को प्राप्त हो जाता है। श्री अमितिगति सुभाषित में कहते हैंभावाभावस्वरूपं सकल मसकल द्रव्यपर्याय तत्त्वं । भेदाभेदावली त्रिभुवन भवनाभ्यंतरे वर्तमानम ॥ लोकालोकावलोकी गतनिखिलमलं लोकने यग्य बोधस्त मुक्तिकामा भवनमिदं भावयन्त्वाप्तमा ।।६४७ । भावार्थ-जिस परमात्मा अहतका ज्ञान तीन लोकके भीतर रहे हुए पदार्थों को । भाव अभावरूप, एक व अनेकरूप. द्रव्य व पर्याय स्वरूप, भेद व अभेदरूप देखने में मल रहित परम निर्मल है व लोक अलोकका जाननेवाला है, उसी देव प्राप्तको मुक्तिके वाहने वाले संसाररूपी घरको तोड़ने के लिये ध्याते हैं । छन्द चौपाई। सर्व तत्वके प्राप हि ज्ञाता, मात बालवत् शिक्षा दाता। भव्य साघुजन के हो नेता, मैं भी, भक्ति सहित थुति देता ।। ३५ ।। -~-ser. ~ (5) श्री चन्द्रप्रभ तीर्थंकर स्तुतिः । चन्द्रप्रभं चन्द्रमरीचिगौर, चन्द्र द्वितीयं जगतीव कान्तम् । वन्देऽभिवन्धं महतामृषीन्द्रं, जिनं जितस्वान्तकषायबन्धम् ॥३६॥ अन्वयार्थ-(चंद्रमरीचिगौरं) चंद्रमाकी किरण समान शुक्लवर्ण के धारी, (जगदि द्वितीयं चंद्रं इव) जगत में एक दूसरे ही अपूर्व चंद्रमाके समान (कांतम) केवलज्ञानमई दीप्तिसे प्रकाशमान (महताम् अभिवन्द्यम्) महान् इन्द्रादि द्वारा पूजनेयोग्य, (ऋपीन्द्र गणधर देवोंके स्वामी, (जिन) कर्मोको जीतनेवाले (जितस्वांतकपायबन्धम) तथा अपन
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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