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________________ श्री सुपार्श्व जिन स्तुति .. विचार पूर्वक करना चाहिये, यह तो हरएक मानव का कर्तव्य है, फिर उसमें सफलता व असफलता कर्मों के उदय के अनुकूल है । यह बात हमारी बुद्धिगोचर नहीं है कि सफलता ही होगी या असफलता । इसीलिये स्वामी समन्तभद्राचार्य ने प्राप्तमीमांसा में कहा हैअबुद्धिपूर्वापेक्षायामिष्टानिष्टं स्वदैवतः । बुद्धिपूर्वव्यपेक्षायामिष्टानिष्टं स्वपौरुषात् ॥१॥ भावार्थ-जो फाम हमारे बिना विचार किये हुए ही हो जाते हैं, अर्थात् दुःख सुख प्रादि अबुद्धि पूर्वक हो जाते हैं उनमें अपने ही पूर्व कृत पुण्य पाप कर्म के फल का कारण मुख्य है और पुरुषार्थ गौरण है। तथा जहां बुद्धिपूर्वक विचार करके काम किया जाता है उसमें जो जो इष्ट या अनिष्ट हो जाता है उसमें मुख्यता पुरुषार्थ-की है, गौणता देय की है। वास्तव में हरएक कार्य दो कारणों से होता है-पुरुषार्थ और देव से । कहीं पर पुरुषार्थ की मुख्यता है जहां विचार पूर्वक काम होता है। कहीं पर देव को मुख्यता है जहां कुछ विचार भी नहीं किया गया था। फिसी के मरण का किसी को विचार भी नहीं था, यहां भबुद्धि पूर्वक मरण हुआ। इसमें मुख्यता आयु फर्म के क्षय को है गौरणता बाहरी कारण की भी है। शरीर यन्त्र बिगड़ने में कोई बाहरी कारण अवश्य बना है । जहाँ हमने बहुत विचार पूर्वक कोई काम किया और वह जैसा विचारा था वैसा हो गया, उसमें मुख्यता पुरुषार्थ की कही जाती है। परन्तु गौणता से पुण्य का उदय भी कारण है। इस तरह प्राचार्य ने संसारी प्राणी को हरएक कार्य की सफलता में असमर्थ भी बताया है । तीन मिथ्यास्य का उदय होता है तब उपदेश नहीं लगता है। परन्तु मन्द मिथ्यात्त्व के उदय में उपदेश असर भी कर जाता है । ऐसा स्वरूप भवितव्यता का जानकर - हमें कभी भी प्रमादी न होना चाहिये। यहां देव का स्वरूप मान बताया है। देव के __भाषील मरन्न प्रालसी होकर बैठे रहने का संकेत नहीं है । . छन्द चौपाई यह भवितव्य पटल बल धारी, होय अशक्त अहं मतिकारी। दो कारण बिन कार्य न राचा, के बल यत्न विफल मत साचा ।३३॥ .. उत्थानिका---उसी भवितव्यता की सामर्थ्य को ही दिखाते हैं - बिभेति मृत्योर्न ततोऽस्ति मोक्षो, नित्यं शिवं वाञ्छति नास्य लाभः । .. तथापि बालो भयकामवश्यो, वृथा स्वयं तप्यत इत्यवादीः ॥३४॥ .
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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