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श्री सुपार्श्व जिन स्तुति
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बिगड़ी हुई पीप की दुर्गन्ध से पूर्ण है । काल के मुख में बैठा रहता है तथा रोग रूपी सप का घर है । ऐसा शरीर मानवों के लिये प्रीति योग्य नहीं है ।
हे भगवन् सुपार्श्व ! आपने ऐसी हितरूप शिक्षा देकर जगत के प्राणियों को श्रात्महित में लगाया है, शरीर का मोह छुड़ाया है ।
छन्द चौपाई
जिम जड़ यन्त्र पुरुष से चलता, तिम यह देह जीव धृत पलता ।
प्रशुचि दुःखद दुगन्ध कुरूपी, यामें राग कहा दुःखरूपी ॥३२॥
उत्थानिका - हे भगवन् ! जब प्रापने ऐसी हितकारी शिक्षा दी तब फिर आपके वचन सुनकर सर्व ही जन शरीरादि से वैराग्यवान होकर अपना आत्महित क्यों नहीं करते हैं ?
अलंघ्यशक्तिर्भवितव्यतेयं हेतुद्वयाविष्कृतकार्यलिङ्गा ।
अनीश्वरो जन्तुरहं क्रियातः संहत्य कार्येष्विति साध्ववादीः ॥ ३३ ॥
श्रन्वयार्थ - ( इय) यह ( भवितव्यता) देव या कर्मों का तीव्र उदय (अलंघ्यशक्तिः ) ऐसा है कि इसकी शक्ति का उल्लंघन नहीं किया जा सकता। इसका अनुमान कैसे हो कि कर्म का उदय या देव कोई वस्तु है ? उसके लिये कहते हैं । ( हेतुद्वयाविष्कृतकार्यलिङ्गा) इसका चिह्न यह है कि कोई भी कार्य सुख दुःख या इष्ट सामग्री की प्राप्ति प्रप्राप्ति होती है उसमें दो कारणों की आवश्यकता है । अन्तरंग काररण कर्म का शुभ व अशुभ उदय है a. बाहरी कारण उसके अनुकूल द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का सम्बन्ध है । यदि शुभ कर्म सहाई न हो तो कार्य नहीं भी होता है, इसलिये कहते हैं कि ( कार्येषु) कार्यों के करने के लिये ( संहत्य ) सहकारी काररण मिलाने पर ( ग्रह क्रियार्त्तः जन्तुः ) श्रहङ्कार से प्रातुर मानव ( अनीश्वर: ) असमर्थ हो जाता है अर्थात् जिसको श्रहङ्कार है कि मैं कार्य कर ले जाऊंगा वह कभी २ सफलता नहीं पाता है ( इति साधु अवादीः ) ऐसा प्रापने यथार्थ उपदेश दिया है ।
भावार्थ यहां यह दिखलाया है कि इस जगत में जब इन्द्रिय सुख विरस हैशरीर अपवित्र व क्षणभंगुर है तब कर्म का उदय भी बलवान रहता है। यह वास्तव में कर्म ही के उदय का कारण है जो इच्छित इन्द्रियों के भोग परिश्रम करने पर भी नहीं
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