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तद्यथा
गउ संसारि वसंताहँ सामिय कालु अणंतु । पर मइ कि पि ण पत्तु सुहु दुक्खु जि पत्तु महंतु ॥६॥ . गतः संसारे वसतां स्वामिन् कालः अनन्तः ।
परं मया किमपि न प्राप्तं सुखं दुःखमेव प्राप्तं महत् ।।।। वह विनती इस तरह है-( हे स्वामिन् ) हे स्वामी, ( संसारे वसतां) इस संसारमें रहते हुए हमारा (अनंतः कालः गतः ) अनन्तकाल बीत गया, ( परं ) लेकिन ( मया ) मैंने (किमपि सुखं ) कुछ भी सुख (न प्राप्तं ) नहीं पाया, उल्टा ( महत् दुःखं एव प्राप्तं ) महान् दुःख ही पाया है।
विशेष-निज शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न हुआ जो वीतराग परम आनन्द समरसीभाव है, उस रूप जो आनन्दामृत उससे विपरीत नरकादि दुःखरूप क्षार (खारी) जलसे पूर्ण (भरा हुआ), अजर-अमर पदसे उलटा जन्म जरा (बुढ़ापा) मरणरूपी जलचरोंके समूहसे भरा हुआ, अनाकुलता स्वरूप निश्चय सुखसे विपरीत, अनेक प्रकार आधि व्याधि दुःखरूपी बड़वानलकी शिखाकर प्रज्वलित, वीतराग निर्विकल्प समाधिकर रहित, महान संकल्प विकल्पोंके जालरूपी कल्लोलोंकी मालाओंकर विराजमान, ऐसे संसाररूपी समुद्र में रहते हुए मुझे हे स्वामी, अनन्तकाल बीत गया । इस संसारमें एकेन्द्रीयसे दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रीय स्वरूप विकलत्रय पर्याय पाना दुर्लभ (कठिन) है, विकलत्रयसे पंचेन्द्री, सैनी, छह पर्याप्तियोंकी संपूर्णता होना दुर्लभ है, उसमें भी मनुष्य होना अत्यन्त दुर्लभ, उसमें आर्यक्षेत्र दुर्लभ, उसमेंसे उत्तम कुल ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वर्ण पाना कठिन है, उसमें भी सुन्दर रूप, समस्त पांचों इन्द्रियोंकी प्रवीणता, दीर्घ आयु, बल, शरीर निरोग, जैनधर्म इनका उत्तरोत्तर मिलना कठिन है। कभी इतनी वस्तुओंकी भी प्राप्ति हो जावे, तो भी श्रेष्ठ बुद्धि, श्रेष्ठ धर्म-श्रवण, धर्मका ग्रहण, धारण, श्रद्धान, संयम, विषय-सुखोंसे निवृत्ति, क्रोधादि कपायोंका अभाव होना अत्यन्त दुर्लभ है और इन सबोंसे उत्कृष्ट शुद्धात्मभावनारूप वीतरागनिर्विकल्प समाधिका होना बहुत मुश्किल है, क्योंकि उस समाविके शत्रु जो मिथ्यात्व, विषय, कषाय, आदिका विभाव परिणाम हैं, उनकी प्रबलता है ।