________________
श्री पद्मप्रभ जिन स्तुति
५५
मुक्तादाम छन्द पद्म प्रभ पद्म समान शरीर, शुचि लेश्याघर रूप गम्भीर।
परमश्री शोभित मूर्ति प्रकाश, कमल सूरजवत् भव्य विकाश ॥२६॥ उत्थानिका-यहां कोई शंका करता है कि प्रभु के यथावत् पदार्थों का ज्ञान न होने से व मुक्त हो जाने से वचन का व्यापार संभव न होने से उनका उपदेश प्रमारण कैसे - माना जावे उनका समाधान करते हैं
बभार पद्मा च सरस्वती च,भवान्पुरस्तात्प्रतिमुक्तिलक्ष्म्याः । सरस्वतीमेव समनशोभां, सर्वज्ञलक्ष्मी ज्वलितां विमुक्तः ॥२७॥ - अन्वयार्थ- (भवान्) आपने (प्रतिमुक्तिलक्ष्म्याः ) मोक्ष रूपी लक्ष्मी की प्राप्ति के (पुरस्तात्) पहले अर्थात् अरहन्त अवस्था में जब शरीर होता है (पां च) अनन्तज्ञानादि लक्ष्मी को तथा ( सरस्वती च ) दिव्य ध्वनि को भी और ( समग्रशोभां सरस्वती एव ) सर्व शोभा से परिपूर्ण समवसरण आदि विभूति को या क्षुधा आदि १८ दोष रहितपने को (बभार) धारण किया था। (विमुक्तः ) और जब पाप मोक्ष हुए लव (ज्वलितां) सदा प्रकाशरूप निर्मल (सर्वज्ञलक्ष्मी) अनन्तज्ञानादि विभूति को धारण किया था।
भावार्थ-यहां पर यह दिखलाया है कि श्री पद्मप्रभ का नाम सार्थक है। जैसे यह प्रसिद्ध है कि लक्ष्मी कमल में रहती है या यह वरिणत है कि लक्ष्मी कुमारिका देवी शिखरी पर्वत के कुण्ड पुण्डरीक नाम के कमलवत् द्वीप में रहती है उसी तरह यहां पर बताया है कि श्री पद्मप्रभ जिनकी शोभा कमलवत् थी सदा ही लक्ष्मी को धारण करते थे । जब तक प्राप मोक्ष न हुए और अरहन्त परमात्मा रहे तब तक आपने अनन्तज्ञानादि अन्तरंग चतुष्टय रूपो लक्ष्मी को धारण किया व बाह्य में समवसरणादि विभूति को व क्षुधादि दोषरहितपने को व सर्व पदार्थों को यथार्थ कहने में समर्थ ऐसी दिव्य वासी को धारण किया। इस कारण प्रापने जो कुछ कथन किया सो सत्य प्रमाणीक कथन किया। क्योंकि जो सर्व पदार्थों को जानता होगा उसके किसी तरह का प्रज्ञान नहीं हो सकता है। तथा नापने मोह का पहले ही नाश कर दिया था इसलिये पाप में राग-द्वेष व कोई स्वार्थ रहा ही नहीं जिससे प्रसत्य कहा जा सके। जो वीतराग है उसके कोई राग-द्वेष सम्भव नहीं है। जो रागी व द्वषी होता है वही अयथार्थ कह सकता है। आप क्योंकि परम वीतराग व सर्वज्ञ थे तथा मोक्ष होने के पहले शरीर सहित थे, तब ही आपको दिव्यवाणी