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श्री सम्भवजिन स्तुति किमिह परमसौख्यं निःस्पृहत्वं यदेतत् । किमथ परम दुःखं सस्पृहत्वं यदेतत् ।।
इति मनसि विधाय त्यक्तसगा: सदा ये । विदघति जिनधर्म ते नराः पुण्यवन्तः ॥१॥ : भावार्थ-परम सुख क्या है ? उत्तर यह है कि वह इच्छारहितपना है । परम दुःख क्या है ? उत्तर यह है कि वह इच्छावान्पना है । ऐसा मन में समझकर जो मूर्छा त्यागकर जिन धर्म का सेवन करते हैं वे ही मानव पवित्र हैं या पुण्यवान हैं व उनही ने
अपना जन्म सफल किया है। धन्य हैं श्री संभवनाथ स्वामी जो आपने ऐसा सत्य स्वरूप . बताकर मोही. जीवों को जागृत किया है। आपको मैं बार-बार नमन करता है। ऐसा भाव श्री समंतभद्राचार्य ने इस श्लोक में झलकाया है।
भुजंगप्रयात छन्द खविजली समं चचलं, सुखविषयका । कर वृद्धि तृष्णामई, रोग जियका ।।
सदा दाह चितमें, कुतृष्णा बढ़ावे । जगत दुःख भोगे, प्रभू इम बतावे ॥१॥ - उस्थानिका-लोग कहते हैं कि बंध व मोक्ष प्रादि तत्त्वों की सिद्धि हे संभवनाथ भगवान् ! आपके ही मत में हो सकती है। जो एकान्त मत हैं उनके यहां नहीं हो सकती- . बंधश्च मोक्षश्च तयोश्च हेतुः, बद्धश्च मुक्तश्च फलं च मुक्तेः । स्याद्वादिनो नाथ लवैव युक्तं नैकान्तदृष्टेस्त्वमतोसि शास्ता ॥१४॥
अन्वयार्थ-( बन्धश्च मोक्षश्च ) जीव का कर्म पुद्गलों से बन्ध होना तथा जीव फा कर्मों से छुट जाना ( तयोः हेतुः च ) और उन बंध और मोक्ष के कारण भाव अर्थात् मिध्यात्व प्रादि वन्ध के कारण और सम्यग्दर्शन आदि मोक्ष के कारण (वद्धश्च मुक्तश्च ) पौर बंधने वाला जीव तथा छूटने वाला जीव (मुक्त : फलं च) तथा मुक्ति होने का फल अपने ज्ञान दर्शन सुख वीर्यादि गुणों की पूर्ण प्राप्ति ये सब तत्त्व ( नाथ ) हे संभवनाथ ! ( तब स्याद्वादिने एव) प्राप स्याद्वाद सिद्धान्त बताने वाले के ही मत में (युक्त) सिद्ध हो सकते हैं (एकांतदृष्टीन) जो एलान्त मत वाले हैं उनके यहां ये बातें सिद्ध नहीं हो सकती । [प्रतः ] इसलिये [त्वम् शास्ता असि] श्लाप हो तस्व के यथार्थ उपदेश देने वाले हैं। ... जो पदार्थ को क्षणिक मानते हैं उनके मत में बचने वाला और ही ठहरेगा, छूटने घाला भौर हो ठहरेगा, यन्ध का कारण कोई और करेगा, बन्ध से मुक्ति किसी और को