________________
[८] · अत ऊर्ध्वं व्यवहारनिश्चयशुद्धात्मनो हि सिद्धास्तथापि निश्चयनयेन शुद्धात्मस्वरूप तिष्ठन्तीति कथयति
ते पुणु वंदउँ सिद्ध-गण जे अप्पाणि वसंत । लोयालोउ वि सयलु इहु अच्छहिं विमलु णियंत ॥५॥ तान् पुनर्वन्दे सिद्धगणान् ये आत्मनि वसन्तः ।
लोकालोकमपि सकलं इह तिष्ठन्ति विमलं पश्यन्तः ।।५।।
आगे यद्यपि वे सिद्ध परमात्मा व्यवहारनयकर लोकालोकको देखते हुए मोक्षमें तिष्ठ रहे हैं, लोकके शिखर ऊपर विराजते हैं, तो भी शुद्ध निश्चयनयकर अपने स्वरूप में ही स्थित हैं, उनको मैं नमस्कार करता हूँ।- (अहं) मैं (पुनः) फिर (तान्) उन (सिद्धगणान्) सिद्धोंके समूहको (वन्दे) वंदता हूं (ये) जो (प्रात्मनि वसन्तः) निश्चयनयकर अपने स्वरूपमें तिष्ठते हुए व्यवहारनयकर (सकलं) समस्त (लोकालोकं) लोक अलोकको (विमलं) संशय रहित (पश्यन्तः) प्रत्यक्ष देखते हुए (तिष्ठन्ति) ठहर रहे हैं।
विशेष-मैं कर्मोंके क्षयके निमित्त फिर उन सिद्धोंको नमस्कार करता हूं, जो निश्चयनयकर अपने स्वरूप में स्थित हैं, और व्यवहारनयकर सब लोकालोकको नि:संदेहपनेसे प्रत्यक्ष देखते हैं, परन्तु पदार्थों में तन्मयी नहीं हैं, अपने स्वरूप में तन्मयी हैं । जो परपदार्थों में तन्मयी हो, तो परके सुख दुःखसे आप सुखी दुःखी होवे, ऐसा उनमें कदाचित नहीं है । व्यवहारनयकर स्थूलसूक्ष्म सबको केवलज्ञानकर प्रत्यक्ष निःसंदेह जानते हैं, किसी पदार्थसे राग द्वेष नहीं है । यदि रागके हेतुसे किसीको जाने, तो वे राग द्वेषमयी होवें, यह बड़ा दूषण है, इसलिये यह निश्चय हुआ कि निश्चयनयकर अपने स्वरूपमें निवास करते हैं परमें नहीं और अपनी ज्ञायकशक्तिकर सबको प्रत्यक्ष देखते हैं. जानते हैं। जो निश्चयकर अपने स्वरूप में निवास कहा, इसलिये वह अपना स्वरूप ही आराधने योग्य है, यह भावार्थ हुआ ॥५॥
अथ निष्कलात्मानं सिद्धपरमेष्ठिनं नत्वेदानीं तस्य सिद्धस्वरूपस्य तत्प्राप्त्युपायस्य च प्रतिपादकं सकलात्मानं नमस्करोमि
केवल-दसण-णाणमय केवल-सुक्ख सहाय । जिणवर वंदउँ भत्तियए जेहिं पयासिय भाव ॥६॥