SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 288
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६४ ] परमात्मप्रकाश तो भी सहज शुद्ध परमानन्दरूप निजस्वभाव कर जुदा ही है, देहके सुख-दुःख जीवमें नहीं हैं ।।१७८-८१॥ अथ दुःखजनकदेहघातकं शत्रुमपि मित्रं जानीहीति दर्शयतिइहु तणु जीवड तुझ रिउ दुक्खइं जेण जणेइ । सो परु जाणहि मित्तु तुहुँ जो तणु एहु हणेइ ।।१२।। इयं तनुः जीव तव रिपुः दुःखानि येन जनयति । तं परं जानीहि मित्रं त्वं यः तनुमेतां हन्ति ।।१८२।। आगे दुःख उत्पन्न करनेवाला शत्रुरूप यह देह है, उसको तू मित्र मत गम, ऐसा कहते हैं-(जीव) हे जीव, (इयं तनः) यह शरीर (तव रिपुः) तेरा श है (पन) क्योंकि (दुःखानि) दुःखोंको (जनयति) उत्पन्न करता है, (यः) जो (इमां तनुं) इस शगेर का (हति) घात करे, (तं) उसको (त्वं) तुम (परं मित्रं) परममित्र (जानीहि) जानो। भावार्थ-यह शरीर तेरा शत्रु होनेसे दुःख उत्पन्न करता है, इससे त था. राग मत कर और जो तेरे शरीरकी सेवा करता है, उससे भी राग मत कर, तथा तेरे शरीरका घात कर देवे, उसको शत्रु मत जान । जब कोई तेरे शरीरका विनाम करे, तब वीतराग चिदानन्द ज्ञानस्वभाव परमात्मतत्त्वकी भावनासे उत्पन्न जो परम समरसीभाव, उसमें लीन होकर शरीरके घातकपर उप मत कर । जैरो महामस्वम्प युधिष्ठिर पांडव आदि पांचों भाइयोंने दुर्योधनादिपर द्वप नहीं किया। उसी तरह सभी साधुओंका यही स्वभाव है, कि अपने शरीरका जो घात करे, उससे नहीं करते, सबके मित्र ही रहते हैं ।।१८२।। अथ उदयागते पापकर्मणि स्वस्वभावो न त्याज्य इति मनसि मंधार्य गमिई कथयति उदयहं प्राणिवि कम्मु मई जं भुजेवउ होइ । तं सह आविड व विउ मड़ सो पर लाइ जि कोइ ॥१८३१ उदयमानीय रम गया यद् भोक्तव्यं नाति । सत् स्वयमाग अपितं मया म पर लान पय कश्चित् ।।१८।। आग पूर्वोपार्जित पापक. उदयने अवस्था आ जाय माना वादि स्वभाव न छोड़े, मा अमिताय मन में हार व्यापान --(२)
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy