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और भोगोंका अनु
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जैसे अग्नि ईन्धन से ऐसा ही समयसार में
अध्यात्म की प्रीति है, वह स्वाधीनता है, इसमें कोई विघ्न नहीं है, राग वह पराधीनता है । भोगोंको भोगते कभी तृप्ति नहीं होती तृप्त नहीं होती, और सैकड़ों नदियोंसे समुद्र तृप्त नहीं होता है । कहा है, कि हंस (जीव ) तू इस आत्मस्वरूप में ही सदा लीन हो, और सदा इसी में सन्तुष्ट हो । इसी से तू तृप्त होगा और इसीसे ही तुझे उत्तम सुखकी प्राप्ति होगी । इस कथनसे अध्यात्म-सुख में ठहरकर निजस्वरूपकी भावना करनी चाहिये, और कामभोगों से कभी तृप्ति नहीं हो सकती । ऐसा कहा भी है, कि जैसे तृण, काठ आदि ईन्धनसे अग्नि तृप्त नहीं होती, और हजारों नदियोंसे लवणसमुद्र तृप्त नही होता, उसी तरह यह जीव काम भोगोंसे तृप्त नहीं होता । इसलिये विषय सुखोंको छोड़कर अध्यात्म सुखका सेवन करना चाहिये | आत्म-सुखका शब्दार्थ करते हैं - मिथ्यात्व विषय कषाय आदि बाह्य पदार्थोंका अवलम्बन ( सहारा) छोड़ना और आत्मामें तल्लीन होना वह • अध्यात्म है ।। १५४।।
परमात्मप्रकाश
थात्मनो ज्ञानस्वभावं दर्शयति
अप्प खाणु परिचय गुण अस्थि सहाउ | इउ जाणे विणु जोइयहु परहं म बंधउ राउ || १५५ ।।
आत्मनः ज्ञानं परित्यज्य अन्यो न अस्ति स्वभावः ।
इदं ज्ञात्वा योगिन् परस्मिन् मा बधान रागम् ।। १५५||
आगे आत्माका ज्ञानस्वभाव दिखलाते हैं - ( श्रात्मनः ) आत्माका निजस्व
भाव (ज्ञानं परित्यज्य ) वीतराग स्वसंवेदनज्ञान के सिवाय ( अन्य: स्वभाव: ) दूसरा स्वभाव ( न अस्ति) नहीं है, आत्मा केवलज्ञानस्वभाव है, ( इति ज्ञात्वा ) ऐसा जानकर ( योगिन् ) हे योगी, (परस्मिन्) परवस्तुसे (राग) प्रीति (मा वधान ) मत बांध |
भावार्थ- पर जो शुद्धात्मा से भिन्न देहादिक उनमें राग मत कर, आत्मा का ज्ञानस्वरूप जानकर रागादिक छोड़के निरन्तर आत्माकी भावना करनी चाहिए । अथ स्वात्मोपलम्भनिमित्तं चिचस्थिरीकरणरूपेण परमोपदेशं पञ्चकलेन दर्शयतिविसय कसायहिं मण-सलिलु णवि डहुलिजइ जासु । अप्पाणिम्मलु होइ लहु वढ पञ्चक्खु वि तासु ॥ १५६ ॥