SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 266
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ૨૪૨ ] परमात्मप्रकाश दुःखानि पापानि अशुचीनि त्रिभुवने सकलानि लात्वा । एतैः देहः विनिर्मितः विधिना वैरं मत्वा ।। १५० ।। आगे फिर भी देहकी मलिनता दिखलाते हैं - ( त्रिभुवने ) तीन लोक में (दुःखानि पापानि अशुचीनि ) जितने दुःख हैं, पाप हैं, और अशुचि वस्तुयें हैं, (सकलानि) उन सबको ( लात्वा) लेकर ( एतैः ) इन मिले हुओं से (विधिना ) विधाताने (रं) (मत्वा) मानकर (देहः) शरीर ( निर्मितः ) बनाया है । भावार्थ - तीन लोक में जितने दुःख हैं, उनसे यह देह रचा गया है, इससे दुःखरूप है, ओर आत्मद्रव्य व्यवहारनयकर देहमें स्थित है, तो भी निश्चयनयकर देह से भिन्न निराकुलस्वरूप सुखरूप है, तीन लोकमें जितने पाप हैं, उन पापोंसे वह शरीर बनाया गया है, इसलिये यह देह पापरूप ही है, इससे पाप ही उत्पन्न होता है, ओर चिदानन्दचिद्रूप जीव पदार्थ व्यवहारनय से देह में स्थित है, तो भी देहने भिन्न अत्यन्त पवित्र है, तीन जगत् में जितने अशुचि पदार्थ हैं, उनको इकट्ठे कर गह शरीर निर्माण किया है, इसलिये महा अशुचिरूप है, और आत्मा व्यवहारनयकर देह में विराजमान है, तो भी देहसे जुदा परम पवित्र है । इस प्रकार देहका और जीव का अत्यन्त भेद जानकर निरन्तर आत्माको भावना करनी चाहिये ।। १५० ।। व्यथ 2 जोय देहु विणावर लज्जहि किं ण रमंतु । गाणि धमें रइ करहि अप्पा विमलु करंतु ।। १५१ ।। योगिन् देहः घृणास्पदः लज्जसे किं न रममाणः । ज्ञानिन् धर्मेण रतिं कुरु आत्मानं विमलं कुर्वन् ।। १५१ ।। आगे फिर भी देहको अपवित्र दिखलाते हैं - ( योगिन् ) है योगी, (देहः) यह शरीर ( घृणास्पदः) घिनावना है, ( रममाण ) इस देहसे रमता हुआ तू ( कि न तज्जने) क्यों नहीं शरमाता ? (जानिन्) हे ज्ञानी, तू ( आत्मानं ) आत्माको (विमलं पुर्वन् ) निर्मल करता हुआ (धर्म) धर्मसे (ति) प्रीति ( कुरु) कर । भावार्थ - हे जीव तु सब विकल्प छोड़कर वीतरागचा निश्चय प्रीति कर । वातं रोद्र आदि समस्त विकल्पों को छोड़कर आत्माको निर्मल करा हुआ वीतराग भावोंसे प्रीति कर ।।६५६ ।।
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy