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वर मत जावो, स्त्री ही घर है, जिन पुरुषोंने स्त्रीका त्याग किया, उन्होंने घरवा त्याग किया । यह घर मोहके बन्धन से अति दृढ़ बंधा हुआ है, इसमें सन्देह नहीं । यहां तात्पर्य ऐसा है, कि शुद्धात्मज्ञान दर्शन शुद्ध भावरूप जो परमात्मपदार्थ उसकी भावनासे विमुख जो विषय कषाय हैं, उनसे यह मन व्याकुल होता है । इसलिये मनका शुद्धि के विना गृहस्थके यति की तरह शुद्धात्माका ध्यान नहीं होता । इस कारण घरका त्याग करना योग्य है, घरके विना त्यागे मन शुद्ध नहीं होता । ऐसी दूसरी जगह भी कहा है, कि कषायोंसे और इन दुष्ट इन्द्रियोंसे मन व्याकुल होता है, इसलिये गृहस्थ लोग आत्म-भावना कर नहीं सकते || १४४ ||
अथ गृहममत्वत्यागानन्तरं देहममत्वत्यागं दर्शयतिविजित्थुप
तहिं प्रपण किं
।
पर- कारणि मण गुरु तुहुँ सिव-संगमु अवगणु ॥ १४५ ॥
परमात्मप्रकाश
देहोऽपि यत्र नात्मीयः तत्रात्मीयं किमन्यत् ।
परकारणे मा मुह्य ( ? ) त्वं शिवसंगमं अवगण्य ॥ १४५ ॥
आगे घरकी ममता छुड़ाकर शरीरका ममत्व छुड़ाते हैं - ( यत्र ) जिस संसार में (देहोऽपि ) शरीर भी ( आत्मीयः न ) अपना नहीं है, (तत्र) उसमें ( श्रन्यत्) अन्य ( आत्मीयं किं ) क्या अपना हो सकता है ? ( त्वं ) इस कारण तू (शिवसंगम) मोक्ष का संगम (अवगण्य ) छोड़कर ( परकारणे ) पुत्र, स्त्री, वस्त्र, आभूषण आदि उपकरणों में (मा मुह्य ) ममत्व मत कर ।
भावार्थ - अमूर्त वीतराग भावरूप जो निज शुद्धात्मा उससे व्यवहारनयकर दूध पानी की तरह यह देह एक-मेक हो रही है, ऐसो देह, जीवका स्वरूप नहीं है, तो पुत्र कलादि धन-धान्यादि अपने किस तरह हो सकेंगे ? ऐसा जानकर बाह्य पदार्थ में ममता छोड़कर शुद्धात्माको अनुभूतिरूप जो वीतराग निर्विकल्पसमाधि उसमें ठहरकर सब प्रकार शुद्धोपयोग की भावना करनी चाहिये ।। १४५ ।।
अथ तमेवार्थं पुनरपि प्रकारान्तरेण व्यक्तीकरोति —
करि सिव-संगम एक्कु पर जहिं पाविजड़ सुक् ।
जोय राम चिंति तुहुं जेगा या लभइ मुक्खु ॥ १४६॥