________________
२२६ ]
और जिसमें विचित्र कथायें हैं, ऐसे सुन्दर काव्य कहे जाते हैं, वे भी विनश्वर है इत्यादि जो-जो वस्तु सुन्दर और खोटे कवियोंकर प्रकाशित खोटे काव्य भी विनश्व हैं । इत्यादि जो-जो वस्तु सुन्दर और असुन्दर दीखती हैं, वे सब कालरूपी अग्निक ईंधन हो जायेंगी ।
परमात्मप्रकाश
तात्पर्य यह है, कि सब भस्म हो जावेंगी, और परमात्माकी भावनासे रहित जो जीव उसने उपार्जन किया जो वनस्पतिनामकर्म उसके उदयसे वृक्ष हुआ, सो वृक्षों समूह जो फूले-फले दीखते हैं, वे सव ईंधन हो जावेंगे । संसारका सब ठाठ क्षणभंगुर है, ऐसा जानकर पंचेन्द्रियोंके विषयोंमें मोह नहीं करना, विषयका राग सर्वथा त्यागना योग्य है । प्रथम अवस्था में यद्यपि धर्मतीर्थ की प्रवृत्तिका निमित्त जिनमन्दिर, जिन प्रतिमा, जिनधर्म तथा जैनधर्मी इनमें प्रेम करना योग्य है, तो भी शुद्धात्माकी भावना के समय यह धर्मानुराग भी नीचे दरजेका गिना जाता है, वहां पर केवल वीतराग भाव ही है ||१३०|
अथ शुद्धात्मद्रव्यादन्यत्सर्वमध्रुवमिति प्रकटयति
एक्कु जि मेल्लिव बंभु परु भुवगु वि एहु असेसु ।
पुहवहिं गिम्मिउ भंगुरउ एहउ बुज्झि विसेसु || १३१ ||
एवमेव मुक्त्वा ब्रह्म परं भुवनमपि एतद् अशेषम् ।
पृथिव्यां निर्मार्पितं भंगुरं एतद् बुध्यस्व विशेषम् ।। १३१||
आगे शुद्धात्मस्वरूपसे अन्य जो सामग्री है, वह सभी विनश्वर हैं, ऐसा व्याख्यान करते हैं—(एकं परं ब्रह्म एव) एक शुद्धजीव द्रव्यरूप परब्रह्मको (मुक्त्वा) छोट कर (पृथिव्यां) इस लोकमें (इदं अशेषं भुवनमपि निर्मार्पितं ) इस समस्त लोकके पदार्थों की रचना है, वह सब (भंगुरं) विनाशीक है, ( एतद् विशेषं) इस विशेष बातको (बुध्यस्व ) जान |
भावार्थ- शुद्धसंग्रह्नयकर समस्त जीव-राशि एक है । जैसे नाना.. प्रकारके वृक्षोंकर भरा हुआ वन एक कहा जाता है, उसी तरह नाना प्रकारके जीव-जाति करके एक कहे जाते हैं । वे सब जीव अविनाशी हैं, और सब देहादिको बनना विनाशीक दीखती है | शुभ-अशुभ कर्मकर जो देहादिक इस जगत् में रची गई है, यह सब विनाशक है, है प्रभाकरभट्ट ऐसा विशेष तू जान देहादिको अनित्य जान को