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________________ [ १८५ ऐसा ही कथन ग्रन्थों में हरएक जगह कहा है, कि वैराग्यमें लगे हुए जो मोहशत्रुको जीतनेवाले हैं, वे थोड़े शास्त्रोंको ही पढ़कर सुधर जाते हैं-मुक्त हो जाते हैं, और वैराग्य के विना सब शास्त्रोंको पढ़ते हुए भी मुक्त नहीं होते | यह निश्चय जानना परन्तु यह कथन अपेक्षासे है । इस बहाने से शास्त्र पढ़ने का अभ्यास नहीं छोड़ना, और जो विशेष शास्त्र के पाठी हैं, उनको दूषण न देना । जो शास्त्र के अक्षर बता रहा है, और आत्मामें चित्त नहीं लगाया वह ऐसे जानना कि जैसे किसीने कण रहित बहुत भूसेका ढेर कर लिया हो, वह किसी कामका नहीं है । इत्यादि पीठिका - मात्र सुनकर जो विशेष शास्त्रज्ञ हैं, उनकी निंदा नहीं करनी, और जो बहुश्रुत हैं, उनको भी अल्प शास्त्रज्ञोंकी निन्दा नहीं करनी चाहिये । क्योंकि परके दोष ग्रहण करनेसे राग द्वेषकी उत्पत्ति होती है, उससे ज्ञान और तपका नाश होता है, यह निश्चयसे जानना ॥ ८४॥ अथ वीतरागस्वसंवेदन ज्ञानरहितानां तीर्थभ्रमणेन मोक्षो न भवतीति कथयति - तित्थइ तित्थु भमंताहं मूढहं मोक्खु ण होइ । गाण-विवज्जिउ जेण जिय मुणिवरु होइ ग सोड़ ॥८५॥ परमात्मप्रकाश तीर्थं तीथं भ्रमतां मूढानां मोक्षो न भवति । ज्ञानविवजितो येन जीव मुनिवरो भवति न स एव ॥ ८५ ॥ आगे वीतराग स्वसंवेदनज्ञानसे रहित जीवोंको तीर्थ-भ्रमण करनेसे भी मोक्ष नहीं है, ऐसा कहते हैं - (तीर्थ तीर्थ) तीर्थ तीर्थ प्रति ( भ्रमतां ) भ्रमण करनेवाले ( मूढानां ) मूर्खोको (मोक्षः) मुक्ति (न भवति) नहीं होती, (जीव) हे जीव, (येन) क्योंकि जो (ज्ञानविर्वाजितः) ज्ञानरहित हैं, ( स एव) वह (मुनिवरः न भवति) मुनीश्वर नहीं हैं, संसारी हैं । मुनीश्वर तो वे ही हैं, जो समस्त विकल्पजालोंसे रहित होके अपने स्वरूपमें रमें, वे ही मोक्ष पाते हैं । भावार्थ - निर्दोष परमात्मा की भावनासे उत्पन्न हुआ जो वीतराग परम आनंदरूप निर्मल जल उसके धारण करनेवाले और ज्ञान दर्शनादि गुणों के समूहरूपी चन्दनादि वृक्षोंके वनोंसे शोभित तथा देवेन्द्र चक्रवर्ती गणधरादि भव्यजीवल्पी तीर्थयात्रियोंके कानोंको सुखकारी ऐसी दिव्यध्वनि से शोभायमान और अनेक मुनिजनपी राजहंसों को आदि लेकर नाना तरहके पक्षियोंके शब्दोंसे महामनोहर जो अरहन्त वीत
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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