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परमात्मप्रकाश
[ १८३ भावार्थ-यद्यपि व्यवहारनयसे आत्मा अध्यात्मशास्त्रोंसे जाना जाता है, तो __ भी निश्चयनयसे वीतरागस्वसंवेदनज्ञान ही से जानने योग्य है, यद्यपि वाह्य सहकारी
कारण अनशनादि बारह प्रकारके तपसे साधा जाता है, तो भी निश्चयनयसे निविकल्पवीतरागचारित्र ही से आत्माकी सिद्धि है । जिस वीतरागचारित्र का शुद्धात्मामें विश्राम होना ही लक्षण है । सो वीतरागचारित्रके आगमज्ञानसे तथा बाह्य तपसे आत्मज्ञानकी सिद्धि नहीं है । जबतक निज शुद्धात्मतत्त्वके स्वरूपका आचरण नहीं है, तवतक कर्मो से नहीं छूट सकता । यह निःसन्देह जानना, जवतक परमतत्त्वको न जाने, न श्रद्धा करे, न अनुभवे, तबतक कर्मबन्धसे नहीं छूटता। इससे यह निश्चय हुआ, कि कर्मवन्धसे छूटनेका कारण एक आत्मज्ञान ही हैं, और शास्त्रका ज्ञान भी आत्मज्ञानके लिये ही किया जाता है, जैसे दीपकसे वस्तुको देखकर वस्तुको उठा लेते हैं, और दीपकको छोड़ देते हैं, उसी तरह शुद्धात्मतत्त्वके उपदेश करनेवाले जो अध्यात्मशास्त्र उससे शद्धात्मतत्त्वको जानकर उस शुद्धात्मतत्त्वका अंतुभव करना चाहिए, और शास्त्रका विकल्प छोड़ना चाहिये । शास्त्र तो दीपकके समान है, तथा आत्मवस्तु रत्नके समान है ।।२।।
अथ योऽसौ शास्त्रं पठन्नपि विकल्पं च मुञ्चति निश्चयेन देहस्थं शुद्धात्मानं न मन्यते स जडो भवतीति प्रतिपादयति
संत्थु पढंतु वि होइ जडु जो ण हणेइ वियप्पु । देहि वसंतु वि णिम्मलउ णवि मरणइ परमप्पु ॥३॥ शास्त्रं पठन्नपि भवति जडः यः न हन्ति विकल्पम् । देहे वसन्तमपि निर्मलं नैव मन्यते परमात्मानम् ।।८३॥
आगे जो शास्त्रको पढ़ करके भी विकल्पको नहीं छोड़ता, और निश्चयसे शुद्धात्माको नहीं मानता जो कि शुद्धात्मदेव देहरूपी देवालयमें मौजूद है, उसे व ध्यावता है, वह मूर्ख है, ऐसा कहते हैं-(यः) जो जीव (शास्त्रं) शास्त्रको (पठन्नपि) पढ़ता हुआ भी (विकल्पं) विकल्पको (न) (हति) नहीं दूर करता, (मेंटता) वह (जडो भवति) मूर्ख है, जो विकल्प नहीं मेंटता, वह (देहे) शरीरमें (वसंतमपि) रहते हुए भी (निर्मलं परमात्मानं) निर्मल परमात्माको (नैवमन्यते) नहीं श्रद्धानमें लाता।
भावार्थ-शास्त्रके अभ्यासका तो फल यह है, कि रागादि विकल्पोंको दूर करना, और निजशुद्धात्माको ध्यावना । इसलिए इस व्याख्यानको जानकर तीन गुप्तिमें