________________
१७० ]
पयोगादिप्र तिपादनमुख्यत्वेनैकाधिकचत्वारिंशत्सूत्रपर्यन्तं व्याख्यानं करोति । तत्रान्तरस्थलचतुष्टयं भवति । तद्यथा । प्रथमसूत्रपञ्चकेन शुद्धोपयोगव्याख्यानं करोति, तदनन्तरं पञ्चदशसूत्रपर्यन्तं वीतरागस्त्रसंवेदनज्ञानमुख्यत्वेन व्याख्यानम्, अत ऊर्ध्वं सूत्राटकपर्यन्तं परिग्रहत्यागमुख्यत्वेन व्याख्यानं, तदनन्तरं त्रयोदशसूत्रपर्यन्तं केवलज्ञानादिगुणस्वरूपेण सर्वे जीवाः समाना इति मुख्यत्वेन व्याख्यानं करोति । तद्यथा ।
रागादिविकल्पनिवृत्तिस्त्ररूप शुद्धोपयोगे संयमादयः सर्वे गुणास्तिष्ठन्तीति प्रति
पादयति
परमात्मप्रकाश
सुद्धहं संजम सीलु तउ सुद्धहं दंसगुणागु । सुद्धहं कम्मक्खउ हवइ सुद्धउ पहाणु ॥६७॥ शुद्धानां संयमः शीलं तपः शुद्धानां दर्शनं ज्ञानम् ।
तेण
शुद्धानां कर्मक्षयो भवति शुद्ध तेन प्रधानः ॥ ६७॥
इस तरह मोक्ष, मोक्ष-फल मोक्षमार्गादिका कथन करनेवाले दूसरे महा अघिकारमें निश्चयनयसे पुण्य पाप दोनों समान हैं, इस व्याख्यानकी मुख्यतासे चौदह दोहे कहे । आगे शुद्धोपयोगक़े कथनको मुख्यतासे इकतालीस दोहोंमें व्याख्यान करते हैं, और आठ दोहोंमें परिग्रहत्याग के व्याख्यान की मुख्यतासे कहते हैं, तथा तेरह दोहोंमें केवलज्ञानादि गुणस्वरूपकर सब जीव समान हैं, ऐसा व्याख्यान है ।
अब प्रथम ही रागादि विकल्पकी निवृत्तिरूप शुद्धोपयोग में संयमादि सब गुण रहते हैं, ऐसा वर्णन करते हैं - ( शुद्धानां ) शुद्धोपयोगियोंके ही ( संयमः शील तपः ) पांच इन्द्री छट्टुळे मनको रोकनेरूप संयम शोल और तप (भवति) होते हैं, ( शुद्धानां ) शुद्धों के ही ( दर्शनं ज्ञानं ) सम्यग्दर्शन और वीतरागस्वसंवेदनज्ञान और ( शुद्धानां ) शुद्धोपयोगियोंके ही ( कर्मक्षयः ) कर्मोंका नाश होता है, (तेन) इसलिये (शुद्धः ) शुद्धोपयोग ही ( प्रधानः ) जगतमें मुख्य है । .
भावार्थ – शुद्धोपयोगियोंके पांच इन्द्री छुट्ट मनका रोकना, विषयाभिलापको निवृत्ति, और छह कायके जीवोंकी हिंसासे निवृत्ति, उसके बलसे आत्मामें निश्चल रहना, उसका नाम संयम है, वह होता है, अथवा उपेक्षासंयम अर्थात् तीन गुप्ति आमद और उपहृतसंयम अर्थात् पांच समितिका पालना, अथवा सरागसंयम अर्थात शुभोपयोगरूप सयम और वीतरागसंयम अर्थात् शुद्धोपयोगरूप परमसंयम वह उन शुद्ध