SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परमात्मप्रकाश यही श्रीयोगीन्द्राचार्यने मूलमें कहा है जो पाप जीवोंको दुःख प्राप्त कराके फिर शीघ्र ही मोक्षमार्गमें बुद्धिको लगावे, तो वे अशुभ भी अच्छे हैं । तथा जो अज्ञानी जीव किसी समय अज्ञान तपसे देव भी हुआ और देवसे मरके एकेन्द्री हुआ तो वह देवपर्याय पाना किस कामका । अज्ञानीके देव-पद पाना भी वृथा है । जो कभी ज्ञानके प्रसादसे उत्कृष्ट देव होके बहत कालतक सुख भोगके देवसे मनुष्य होकर मुनिव्रत धारण करके मोक्षको पावे, तो उसके समान दूसरा क्या होगा। जो नरकसे भी निकलकर कोई भव्यजीव मनुष्य होके महाव्रत धारण करके मुक्ति पावे, तो वह भी अच्छा है। ज्ञानी पुरुष उन पापियोंको भी श्रेष्ठ कहते हैं, जो पापके प्रभावसे दुःख भोगकर उस दुःखसे डरके दुःखके मूलकारण पापको जानके उस पापसे उदास होवें, वे प्रशंसा करने योग्य हैं, और पापी जीव प्रशंसाके योग्य नहीं हैं, क्योंकि पाप-क्रिया हमेशा निन्दनीय है । भेदाभेदरत्नत्रयस्वरूप श्रीवीतरागदेवके धर्मको जो धारण करते हैं वे श्रेष्ठ हैं । यदि सुखी धारण करे तो भी ठीक, और दुःखी धारण करे तव भी ठीक । क्योंकि शास्त्रका वचन है, कि कोई महाभाग दुःखी हुए ही धर्म में लवलीन होते हैं ।।५६॥ ____ अथ निदानवन्धोपार्जितानि पुण्यानि जीवस्य राज्यादिविभूतिं दत्वा नारकादिदुःखं जनयन्तीति हेतोः समीचीनानि न भवन्तीति कथयति मं पुणु पुण्णई भल्लाइ णाणिय ताई भणंति । जीवहं रज्जादेवि लहु दुक्खइं जाइ जणंति ॥५७॥ मा पुनः पुण्यानि भद्राणि ज्ञानिनः तानि भणन्ति । जीवस्य राज्यानि दत्त्वा लघु दुःखानि यानि जनयन्ति ।।५७॥ आगे निदानबन्धसे उपार्जन किये हुए पुण्यकर्म जीवको राज्यादि विभूति देकर नरकादि दुःख उत्पन्न कराते हैं, इसलिये अच्छे नहीं हैं- (पुनः) फिर (तानि पुण्यानि) वे पुण्य भो (मा भद्राणि) अच्छे नहीं हैं, (यानि) जो (जीवस्य) जीवको (राज्यानि दत्त्वा) राज देकर (लघु) शीघ्र ही (दुःखानि) नरकादि दुःखोंको (जनयंति) उपजाते हैं, (ज्ञानिनः) ऐसा ज्ञानीपुरुष (भणंति) कहते हैं। - भावार्थ-निज शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न जो वीतराग परमानन्द अतीन्द्रियसुख का अनुभव उससे विपरीत जो देखे सुने भोगे इन्द्रियोंके भोग उनकी वांछारूप
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy