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परमात्मप्रकाश
[ १३५ जानपना मुख्य नहीं लिया, केवल स्वसंवेदनज्ञानही निश्चय सम्यग्ज्ञान है । व्यवहारसम्यग्ज्ञान तो परम्पराय मोक्षका कारण है, और निश्चयसम्यग्ज्ञान साक्षात् मोक्षका कारण है ॥२६॥
अथ स्वपरद्रव्यं ज्ञात्वा रागादिरूपपरद्रव्यविषयसंकल्पविकल्पत्यागेन स्वस्वरूपे अवस्थानं ज्ञानिनां चारित्रमिति प्रतिपादयति
जाणवि मण्णवि अप्पु परु जो पर-भाउ चएइ । सो णिउ सुद्धउ भावडउ णणिहि चरणु हवेइ ॥३०॥ ज्ञात्वा मत्वा आत्मानं परं यः परभावं त्यजति । स निजः शुद्धः भावः ज्ञानिनां चरणं भवति ॥३०॥
आगे निज और परद्रव्यको जानकर रागादिरूप जो परद्रव्यमें संकल्प विकल्प हैं, उनके त्यागसे जो निजस्वरूप में निश्चलता होती है, वही ज्ञानी जीवोंके सम्यक्चारित्र है, ऐसा कहते हैं-सम्यग्ज्ञानसे (आत्मानं च परं) आपको और परको (ज्ञात्वा) जानकर और सम्यग्दर्शनसे (मत्वा) आप और परकी प्रतीति करके (यः) जो (परभावं) परभावको (त्यजति) छोड़ता है (सः) वह (निजः शुद्धः भावः) आत्माका निज शुद्ध भाव (ज्ञानिनां) ज्ञानी पुरुषोंके (चरणं) चारित्र (भवति) होता है ।
भावार्थ-वीतराग सहजानन्द अद्वितीय स्वभाव जो आत्मद्रव्य उससे विपरीत पुद्गलादि परद्रव्योंको सम्यग्ज्ञानसे पहले तो जानें, वह सम्यग्ज्ञान संशय विमोह और विभ्रम इन तोनोंसे रहित है । तथा शंकादि दोषोंसे रहित जो सम्यग्दर्शन है, उससे आप और परकी श्रद्धा करे, अच्छी तरह जानके प्रतीति करे, और माया मिथ्या निदान इन तीन शल्योंको आदि लेकर समस्त चिता-समूहके त्यागसे निज शुद्धात्मस्वरूपमें तिष्ठे है, वह परम आनन्द अतीन्द्रिय सुखरसके आस्वादसे तप्त हमा पुरुष ही अभेदनयसे निश्चयचारित्र है ॥३०॥
एवं मोक्षमोक्षफलमोक्षमार्गादिप्रतिपादकद्वितीयमहाधिकारमध्ये निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गमुख्यत्वेन सूत्रत्रयं पड्द्रव्यश्रद्धानलक्षणव्यवहारसम्यक्त्वव्याख्यानमुख्यत्वेन सूत्राणि चतुर्दश, सम्यग्ज्ञानचारित्रमुख्यत्वेन सूत्रद्वयमिति समुदायेनैकोनविंशतिसूत्रस्थलं समाप्तम् ।
____अथानन्तरमभेदरत्नत्रयव्याख्यानमुख्यत्वेन सूत्राष्टकं कथ्यते, तत्रादौ तावत् रत्नत्रयभक्तभव्यजीवस्य लक्षणं प्रतिपादयति