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परमात्मप्रकाश
[ १३३ अवकाश देनेका कारण है, और काल वर्तनाका सहायी है। ये पांचों द्रव्य जीवको कारण हैं, और जीव उनको कारण नहीं है। .... .............
.. यद्यपि जीवद्रव्य अन्य जीवोंको गुरू शिष्यादिरूप परस्पर उपकार करता है, तो भी पुद्गलादि पांच द्रव्योंको अकारण है, और ये पांचों कारण हैं, शुद्ध पारि
णामिक परमभावग्राहक शुद्धद्रव्याथिकनयकर यह जीव यद्यपि बन्ध मोक्ष पुण्य पापका ___ कर्ता नहीं है, तो भी अशुद्धनिश्चयनयकर शुभ अशुभ उपयोगोंसे परिणत हुआ पुण्य
पापके बन्धका कर्ता होता है, और उनके फलका भोक्ता होता है, तथा विशुद्ध ज्ञान दर्शनरूप निज शुद्धात्मद्रव्यका श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप शुद्धोपयोगकर परिणत हुआ मोक्षका भी कर्ता होता है, और अनन्तसुख का भोक्ता होता है।
इसलिये जीवको कर्ता भी कहा जाता है, और भोक्ता भी कहा जाता है । शुभ अशुभ शुद्ध परिणमन ही सब जगह कर्तापना है, और पुद्गलादि पांच द्रव्योंको अपने-अपने परिणामरूप जो परिणमन वही कर्तापता है, पुण्य पापादिकका कर्तापना नहीं है, सर्वगतपना लोकालोक व्यापकताकी अपेक्षा आकाश ही में हैं, धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य ये दोनों लोकाकाशव्यापी हैं, अलोकमें नहीं हैं, और जीवद्रव्यमें एक जीवकी अपेक्षा केवलसमुद्घातमें लोकपूरण अवस्थामें लोकमें सर्वगतपना है, तथा नाना जीवको अपेक्षा सर्वगतपना नहीं है, पुद्गलद्रव्य लोकप्रमाण महास्कन्धकी अपेक्षा सर्वगत है, अन्य पुद्गलकी अपेक्षा सर्वगत नहीं है, कालद्रव्य एक कालाणुकी अपेक्षा तो एकप्रदेशगत है, सर्वगत नहीं है, और नाना कालाणकी अपेक्षा लोकाकाशके सब प्रदेशोंमें कालाणु है, इसलिये सब कालाणुओंकी अपेक्षा सर्वगत कह सकते हैं । इस नयविवक्षासे सर्वगतपनेका व्याख्यान किया । और मुख्यवृत्तिसे विचारा जावे, तो सर्वगतपना आकाशमें ही है, अथवा ज्ञानकी अपेक्षा जीवमें भी है, जीवका केवलज्ञान लोकालोक व्यापक है, इसलिये सर्वगत कहा ।
ये सब द्रव्य यद्यपि व्यवहारनयकर एक क्षेत्रावगाही रहते हैं, तो भी निश्चयनयकर अपने-अपने स्वभावको नहीं छोड़ते, दूसरे द्रव्यमें जिनका प्रवेश नहीं है, सभी द्रव्य निज-निज स्वरूपमें हैं, पररूप नहीं हैं-कोई किसीका स्वभाव नहीं लेता। ऐसा ही कथन श्रीपंचास्तिकायमें है। "अण्णोण्णं" इत्यादि । इसका अर्थ ऐसा है, कि यद्यपि ये छहों द्रव्य परस्पर में प्रवेश करते हुए देखे जाते हैं, तो भी कोई किसी में प्रवेश नहीं करता, यद्यपि अन्यको अन्य अवकाश देता है, तो भी अपना अपना अवकाश