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परमात्मप्रकाश
दुक्खहं कारण मुणिवि जियं दव्वहं एहु सहाउ | होयवि मोक्खहं मग्गि लहु गम्मिज्जइ पर- लोउ ॥२७॥
दुःखस्य कारणं मत्वा जीव द्रव्याणां एतत्स्वभावन् । भूत्वा मोक्षस्य मार्गे लघु गम्यते परलोकः ||२७|
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आगे परद्रव्यों का सम्बन्ध निश्चयनयसे दुःखका कारण है, ऐसा जानकर हे जीव शुद्धात्माकी प्राप्तिरूप मोक्ष मार्ग में स्थित हो, ऐसा कहते हैं - (जीव) हे जीव, ( द्रव्याणां इमं स्वभावं ) परद्रव्यों के ये स्वभाव ( दुःखस्य ) दुःखके ( कारणं मत्वा) कारण जानकर (मोक्षस्य मार्गे) मोक्षके मार्ग में (भूत्वा ) लगकर (लघु) शीघ्र ही (परलोक : गम्यते) उत्कृष्ट लोकरूप मोक्षमें जाना चाहिये ।
भावार्थ- पहले कहे गये पुद्गलादि द्रव्यों के सहाय शरीर वचन मन श्वासो - च्छ्वास आदिक ये सब दुःखके कारण हैं, क्योंकि वीतराग सदा आनन्दरूप स्वभावकर उत्पन्न जो अतीन्द्रिय सुख उससे विपरीत आकुलताके उपजानेवाले हैं, ऐसा जानकर हे जीव, तू भेदाभेद रत्नत्रयस्वरूप मोक्षके मार्ग में लगकर परमात्माका अनुभव परमसमरसीभावसे परिणमनरूप मोक्ष उसमें गमन कर ||२७|
अथेदं व्यवहारेण मया भणितं जीवद्रव्यादिश्रद्धानरूपं सम्यग्दर्शनमिदानीं सम्यग्ज्ञानं चारित्रं च हे प्रभाकरभट्ट शृणु त्वमिति मनसि धृत्वा सूत्रमिदं प्रतिपादयति
नियमें कहियउ एहु मइ ववहारेण विदिट्ठ | एहिं णाणु चरितु सुणि जें पावहि परमेट्ठि ॥ २८॥
नियमेन कथिता एषा मया व्यवहारेणापि दृष्टिः ।
इदानीं ज्ञानं चारित्रं शृणु येन प्राप्नोषि परमेष्ठिनम् ||२८|| आगे व्यवहारनयसे मैंने ये जीवादि द्रव्योंके श्रद्धानरूपको सम्यग्दर्शन कहा
है, अव सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको हे प्रभाकरभट्ट; तू सुन, ऐसा मनमें रखकर यह दोहासूत्र कहते हैं - हे प्रभाकरभट्ट, (मया) मैंने ( व्यवहारेणैव ) व्यवहारनय से तुझको (एषा दृष्टिः) ये सम्यग्दर्शनका स्वरूप ( नियमेन कथिता) अच्छी तरह कहा, ( इदानीं ) अब तू ( ज्ञानं चारित्रं) ज्ञान और चारित्रको (शृणु) सुन, (येन ) जिसके धारण करने से (परमेष्ठिनं प्राप्नोषि ) सिद्धपरमेष्ठी के पदको पावेगा ।