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परमात्मप्रकाश
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..... उन महान् (बड़े) पुरुषोंके शुद्धात्मा उपादेय है ऐसी भावनारूप निश्चयसम्यक्त्व तो है, परन्तु चारित्रमोहके उदयसे स्थिरता नहीं है.। जबतक महाव्रतका उदय नहीं है, तबतक असंयमी कहलाते हैं, शुद्धात्माकी अखण्ड भावनासे रहित हुए भरत सगर राघव पांडवादिक निर्दोष परमात्मा अरहन्त सिद्धोंके गुणस्तवन वस्तुस्तवनरूप स्तोत्रादि करते हैं, और उनके चारित्र पुराणादिक सुनते हैं, तथा उनकी आज्ञाके आराधक जो महान पुरुष आचार्य उपाध्याय साधु उनको भक्तिसे आहारदानादि करते हैं, पूजा करते हैं। विषय कषायरूप खोटे ध्यानके रोकने के लिये तथा संसारकी स्थितिके नाश करनेके लिये ऐसी शुभ क्रिया करते हैं । इसलिये शुभ रागके सम्बन्धसे सम्यग्दृष्टि हैं, और इनके निश्चयसम्यक्त्व भी कहा जा सकता है क्योंकि वीतरागचारित्रसे तन्मयी निश्चयसम्यक्त्वके परंपराय साधकपना है । अब वास्तवमें (असल में) विचारा जावे, तो गृहस्थ अवस्थामें इनके सरागसम्यक्त्व ही है, और जो सरागसम्यक्त्व है, वह व्यवहार ही है, ऐसा जानो ।।१७॥
अथानन्तरं सूत्रचतुष्टयेन जीवादिषद्रव्याणां क्रमेण प्रत्येकं लक्षणं कथयते
मुत्ति-विहूणउ णाणमउ परमाणंद-सहाउ । णियमि जोइय अप्पु मुणि णिच्चु णिरंजणु भाउ ॥१८॥ मूर्तिविहीनः ज्ञानमयः परमानन्दस्वभावः । नियमेन योगिन् आत्मानं मन्यस्व नित्यं निरञ्जनं भावम् ।।१८।।
आगे चार दोहोंसे छह द्रव्योंके क्रमसे हरएकके लक्षण कहते हैं-(योगिन) हे योगी, (नियमेन) निश्चय करके (आत्मानं) तू आत्माको ऐसा (मन्यस्व) जान । कैसा है आत्मा। (मूतिविहीनः) मूर्तिसे रहित है, (ज्ञानमयः) ज्ञानमयी है, (परमानंदस्वभावः) परमानन्द स्वभाववाला है, (नित्यं) नित्य है, (निरंजनं) निरंजन है. (भावं) ऐसा जीवपदार्थ है । ..
भावार्थ-यह आत्मा अमूर्तीक शुद्धात्मासे भिन्न जो स्पर्ण रस गंध वर्णवाली मूति उससे रहित है, लोक अलोकका प्रकाश करनेवाले केवलज्ञानकर पूर्ण है, जो कि केवलज्ञान सब पदार्थोंको एक समयमें प्रत्यक्ष जानता है, आगे पीछे नहीं जानता, वीतरागभाव परमानन्दरूप अतीन्द्रिय सुखस्वरूप अमृतके रसके स्वादसे समरसी भावको परिणत हुआ है, ऐसा हे योगी; शुद्ध निश्चयसे अपनी आत्माको ऐसा समझ, शुद्ध