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अप्पा - दंसणि जिणवरहं जं सुहु होइ तु । तं सुहु लहइ विराउ जिउ जाणंतर सिउ संतु ॥ ११८ ॥ आत्मदर्शने जिनवराणां यत् सुखं भवति अनन्तम् ।
तत् सुखं लभते विरागः जीवः जानन् शिवं शान्तम् ।।११८।। . आगे ऐसा कहते हैं कि वैरागी मुनि ही निज आत्माको जानते हुए निर्विकल्प सुखको पाते हैं - (आत्म दर्शने) निज शुद्धात्माके दर्शन में (यद् अनंतं सुखं ) जो अनन्त अद्भुत सुख ( जिनवराणां ) मुनि-अवस्था में जिनेश्वरदेवोंके (भवति) होता है, ( तत् सुखं) वह सुख ( विरागः जीवः) वीतरागभावनाको परिणत हुआ मुनिराज (शिवं शांतं जानन् ) निज शुद्धात्मस्वभावको तथा रागादि रहित शान्त भावको जानता हुआ (लभते) पाता है । भावार्थ - दीक्षा के समय तीर्थङ्करदेव निज शुद्ध आत्माको अनुभवते हुए जो निर्विकल्प सुख पाते हैं, वही सुख रागादि रहित निर्विकल्प समाधिमें लीन विरक्त मुनि पाते हैं ।। ११८ ।।
अथ कामक्रोधादिपरिहारेण शिवशब्दवाच्यः परमात्मा दृश्यत इत्यभिप्रायं मनसि संप्रधार्य सूत्रमिदं कथयन्ति -
जोइय गिय-मणि म्मिलए पर दीसइ सिउ संतु । अंबरि म्मिलि घण-रहिए भागु जि जेम फुरंतु ॥ ११६ ॥
योगिन् निजमनसि निर्मले परं दृश्यते शिवः शान्तः ।
अम्बरे निर्मले घनरहिते भानुः इव यथा स्फुरन् ।।११।।
आगे काम क्रोधादिकके त्यागनेसे शिव शब्दसे कहा गया परमात्मा दीख
जाता है, ऐसा अभिप्राय मनमें रखकर यह गाथा - सूत्र कहते हैं - ( योगिन् ) हे योगी, (निर्मले निजमनसि ) निर्मल अपने मनमें (शिवः शांतः) निज परमात्मा रागादि रहित (परं) नियमसे (दृश्यते) दोखता है, (यथा ) जैसे ( घनरहिते निर्मले ) वादल रहित निर्मल (अंबरे) आकाशमें (भानुः इव) सूर्यके समान ( स्फुरन् ) भासमान ( प्रकाशमान) है | भावार्थ – जैसे मेघमाला के आडम्बर से सूर्य नहीं भासता - दीखता और मेघके आडम्बरके दूर होनेपर निर्मल आकाश में सूर्य स्पष्ट दीखता है, उसी तरह शुद्ध आत्मा
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