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आगे हे जीव, चिंताओंको छोड़कर शुद्धात्मस्वरूपको निरन्तर देख ऐसा
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कहते हैं— (हे जीव) हे जीव (सकलां) समस्त (चितां) चिन्ताओं को (मुक्त्वा) छोड़कर ( निश्चितः भूत्वा ) निश्चिन्त होकर तू (चित्तं ) अपने मनको ( परमपदे ) परमपद में (निवेशय) धारण कर, और (निरंजनं देवं ) निरञ्जनदेवको (पश्य) देख ।
भावार्थ - हे हंस, (जीव ) देखे सुने और भोगे हुए भोगोंकी वांछारूप खोटे ध्यान आदि सब चिन्ताओंको छोड़कर अत्यन्त निश्चिन्त होकर अपने चित्तको परमात्मस्वरूपमें स्थिर कर । उसके बाद भावकर्म द्रव्यकर्म नोकर्मरूप अंजनसे रहित जो निरंजनदेव परम आराधने योग्य अपना शुद्धात्मा है, उसका ध्यान कर । पहले यह कहा था कि खोटे ध्यानको छोड़, सो खोटें ध्यानका नाम शास्त्र में अपध्यान कहा है । अपध्यानका लक्षण कहते हैं । "बंधवधेत्यादि" उसका अर्थ ऐसा है कि निर्मल बुद्धिवाले पुरुष जिन- शासन में उसको अपध्यान कहते हैं, जो द्वेषसे परके मारनेका बांधनेका अथवा छेदनेका चिन्तवन करे, और रागभावसे परस्त्री आदिका चिन्तवन करे । उस अपध्यानके दो भेद हैं, एक आर्त दूसरा रौद्र । सो ये दोनों ही नरक निगोदके कारण हैं, इसलिये विवेकियों को त्यागने योग्य हैं ।। ११५।।
अथ शिवशब्दवाच्ये निजशुद्धात्मनि ध्याते यत्सुखं भवति तत्सूत्रत्रयेण प्रतिपादयतिजं सिव- दंसणि परम- सुहु पावहि झागु करंतु । तं सुहु भुवणि विप्रत्थि गवि मेल्लिवि देउ
तु ॥ ११६॥
यत् शिवदर्शने परमसुखं प्राप्नोषि ध्यानं कुर्वन् । तत् सुखं भुवनेऽपि अस्ति नैव मुक्त्वा देवं अनन्तम् ||११६॥
आगे शिव शब्दसे कहे गये निज शुद्ध आत्माके ध्यान करनेपर जो सुख होता है, उस सुखको तीन दोहा - सूत्रों में वर्णन करते हैं - (यत्) जो (ध्यानं कुर्वन्) ध्यान करता हुआ (शिवदर्शने परमसुखं) निजशुद्धात्माके अवलोकनमें अत्यन्त सुख ( प्राप्नोपि ) हे प्रभाकर, तू पा सकता है, (तत् सुखं) वह सुख (भुवने अपि) तीनलोक में भी (अनन्तं देवं मुक्त्वा) परमात्म द्रव्य के सिवाय (नैव अस्ति) नहीं है ।
भावार्थ - - शिव नाम कल्याणका है, सो कल्याणरूप ज्ञानस्वभाव निज शुद्धात्मा जानो, उसका जो दर्शन अर्थात् अनुभव उसमें सुख होता है, वह सुख परमात्माको छोड़ तीन लोक में नहीं है । वह सुख क्या है ? जो निर्विकल्प वीतराग