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[ ७८ ] मिथ्यादृष्टि जीव अपने जानता है, और इस अज्ञानसे रहित सम्यग्दृष्टि ज्ञानी जीव उन मनुष्यादि पर्यायोंको अपने से जुदा जानता है ॥६॥
अथअप्पा पंडिउ मुक्खु णवि णवि ईसरु णवि णीसु । तरुणउ बूढउ बालु रणवि अण्णु वि कम्म-विसेसु ॥११॥ आत्मा पण्डितः मूर्खः नैव नैव ईश्वरः नैव निःस्वः । तरुण: वृद्धः बालः नैव अन्यः अपि कर्मविशेषः ।।६१॥
आगे फिर आत्माका स्वरूप कहते हैं- (आत्मा) चिद् प आत्मा (पण्डितः) विद्यावान् व (सूर्खः) मूर्ख (नैव) नहीं है, (ईश्वरः) धनवान सब बातोंमें समर्थ भी (नव) नहीं है (निःस्वः) दरिद्री भी (नैव) नहीं हैं, (तरुणः वृद्धः बालः नैव) जवान, बूढ़ा, और बालक भी नहीं है, (अन्यः अपि कर्मविशेषः) ये सब पर्यायें आत्मासे जुदे कर्मके विशेष हैं, अर्थात् कर्म में उत्पन्न हुए विभाव-पर्याय हैं ।
भावार्थ-यद्यपि शरीरके सम्बन्धसे पंडित वगैरह भेद व्यवहारनयसे जीवके कहे जाते हैं, तो भी शुद्धनिश्चयनयकर शुद्धात्मद्रव्यसे भिन्न हैं, और सर्वथा त्यागने योग्य हैं । इन भेदोंको वीतरागस्वसंवेदनज्ञानकी भावनासे रहित मिथ्यादृष्टि जीव अपने जानता है, और इन्हींको पण्डितादि विभावपर्यायोंको अज्ञानसे रहित सम्यग्दृष्टि जीव अपनेसे जुदे कर्म जनित जानता है ।।१।।
अथपुण्णु वि पाउ वि कालु गहु धम्माधम्मु वि काउ। एक्कु वि अप्पा होइ णवि मेल्लिवि चेयण-भाउ ॥१२॥ पुण्यमपि पापमपि काल: नभः धर्माधर्ममपि कायः । एकमपि आत्मा भवति नैव मुक्त्वा चेतनभावम् ।।१२॥
आगे आत्माका चेतनभाव वर्णन करते हैं-(पुण्यमपि ) पुण्यरूप शुभकम (पापमपि) पापरूप अशुभकर्म (कालः) अतीत अनागत वर्तमान काल (नभः) आकाश (धर्माधर्ममपि) धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य (कायः) शरीर, इनमेंसे (एक अपि) एक भा (आत्मा) आत्मा (नैव भवति ) नहीं है, (चेतनभावं मुक्त्वा ) चेतनभावको छोड़कर अर्थात् एक चेतनभाव ही अपना है ।