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गंभीर दृष्टि से विचार किया जाय तो यही कर्मों की निर्जरा है । आसोज के माह में तो उनका निरन्तराय अाहार सिर्फ ४ बार ही हुआ । मूल बात यह है कि चाहे कितने ही अंतराय आवें, उनको शारीरिक कमजोरी, मनको मलीनता, धर्म-साधन में ग्रालस्य व उदासी कभी नहीं आई; यही है त्याग और तपस्याकी सही महिमा । आपका प्रवचन इतना प्रभावशाली है कि सुनने वाला कभी भी थकान महसूस नहीं करता । . (३) श्री सरलाबाई का इतनी छोटी उम्र में, इतना भारी त्याग यह प्रमाणित करता है कि. ऐसे उत्तमोत्तम संस्कार, जीव को पूर्व पुण्योदय से ही मिलते हैं । इन्होंने इस वर्षायोग में बहुत ही महत्त्वपूर्ण कार्य किया कि दश भक्त्यादि संस्कृत पाठ स्थानीय बालिकाओं को पढ़ाकर सबकी धर्म--भावना की वृद्धि की । इन छात्राओं ने अंजना सुन्दरी, व जयावती का आदर्श नाटक भी इस मंगलमय अवसर पर खेलने का सत्साहस किया। सायंकाल इन बालिकाओं द्वारा की गई उच्च स्वर से प्रारती एक बहुत ही भव्य एवं रोमांचकारी दृश्य को प्रकट करती है।
(४) श्री कंचनबाई (भीलवाडा) भी बहुत सरल स्वभावी व शांत भावों वाली है । प्रसन्नता की बात है कि इन्होंने भी यहीं पर महाराज के समक्ष तृतीय प्रतिमा के व्रत लिये है। हमें आशा है कि ये संघ की शोभा बढानेवाली सिद्ध होंगी।
(५) श्री ज्ञानानन्दजी ब्रह्मचारी ने भी सत्संग में रहकर काफी ज्ञान तथा त्याग के भाव प्राप्त किये हैं। आप हमेशा संघ की सेवा में संलग्न रहते हैं। आप बहुत ही सरल स्वभावी हैं।
सबसे अधिक उल्लेखनीय बात यह है कि महाराज श्री के द्वारा प्रथम दीक्षित पूज्य १०८ श्री विजयसागरजी महाराज तथा कुली जैन समाज के द्वारा समाधिमरण में सहायक होने के लिये प्राग्रहसूचक असाध्यरोग के समाचार ज्यों ही पाये त्योंही महाराज श्री वहां पहुंचे और उन्होंने समाधि के लिये तत्पर महाराज श्री को संबोधन करके उनको आवश्यक नियम व्रत दिये, उन्होंने भी बड़ी प्रसन्नता से विधि पूर्वव व्रत ग्रहरण किये । व्रत के सातिशय प्रभाव से, महाराज के शुभाशीर्वाद से तथा : उनके पुण्य प्रभाव से असांता का तीद्र उदय साता रूप में परिणत होगया और
उनकी बीमारी जड़मूल से चली गई । आयु के लंबी होने के कारण वे शांतिपूर्वक अपना व्रत पाल रहे हैं और आगे का जन्म सुधार रहे हैं । ऐसे महाराज की व्रत-साधना को धन्य है