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________________ भूमिका किसी भी जाति को समृद्धि और उसके प्रभावशाली अस्तित्व का परिज्ञान करने के लिये यह आवश्यक है कि इसकी स्थिति का एक प्रामाणिक इतिवृत्त हमारे सामने है ! हमारे देश में अनेक धर्म है और एक धर्म को मानने वाली अनेक जातियाँ हैं । जैन धर्म जो भारत का अत्यन्त प्राचीन धर्म है किसी समय भारत का प्रमुख धर्म था और वर्णाश्रम नाम से पुकारी जाने वाली ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि जातियाँ सभी इस धर्म का पालन करती थी। लेकिन समय जैसे-जैसे बदला यहाँ अनेक राजवंशों का अभ्युदय हुआ पुराने साम्राज्य विलीन हो गये और उनके साथ कुछ धर्म भी काल के गर्त में समा गये। जैन धर्म पर भी उसका प्रभाव हुआ परन्तु अपने नैतिक आचरण और वैज्ञानिक सिद्धान्तो के सहारे इसके अस्तित्व को कोई ठेस नही पहुॅची। इसके अनुयायियों की संख्या सीमित रह गई । इसनी सीमित कि करोड़ों की जन-संख्या में जैन लगभग भाज बीस लाख हैं । कहा जाता है कि जैनों की ८४ जातियाँ हैं । इनके नाम भी उपलब्ध है पर हमारा अनुमान कि इनकी संख्या और भी अधिक रही होगी । और नहीं तो कम से कम दक्षिण भारत की सभी जैन जातियों का इनमें उल्लेख नहीं है । इन जातियों में एक पद्मावती पुरवाल जाति का भी उल्लेख है । यह जाति उत्तर प्रदेश के आगरा, एटा, मैनपुरी, अलीगढ़ आदि जिलों में बहुतायत से पाई जाती है। भोपाल क्षेत्र तथा नागपुर आदि प्रदेशों में भी यह निवास करती है। लेकिन सुना है कि अब नागपुर की तरफ इस जाति का अस्तित्व समाप्त प्राय है । । पद्मावती पुरवाल एक छोटी सी जाति है लेकिन अपनी धार्मिकता, विद्वत्ता और सातित्व के लिये जैनों में उच्च स्थान रखती है । उसमें उच्चकोटि का पांडित्य है अनेक परमतपस्वी साधु हैं। व्यवसायी और अच्छे कलाकार तथा राजनीतिज्ञ हैं । जैनों को सभी जातियों में प्रायः अजैन पद्धति से ही पिछले समय में विवाह विधि सम्पन्न होती रही है। लेकिन पद्मावती पुरवालों मे प्राचीन काल से ही अपनी जाति के गृहस्थाचार्यों द्वारा विवाह सम्पन्न होते रहे हैं। इस तरह अपना सब कुछ होते हुए भी अभी तक न तो इसकी जन-संख्या का पता था और न यही मालूम था कि पद्मावती पुरवाल कुटुम्ब कहाँ-कहाँ बसे हुए हैं, किस कुटुम्ब में कितने स्त्री पुरुष, बालक हैं, विधवायें कितनी हैं, विधुर कितने हैं, अविवाहित स्त्री-पुरुष कितने हैं, साक्षर और निरक्षरों की संख्या क्या है, प्रवासियों का उद्गम स्थान कहाँ है, उनके अपने मंदिर और धर्मशालाभो की स्थिति कैसी है । इस सब सामग्री को एकत्र करने की इसलिये आवश्यकता होती है कि कोई जाति अपनी जन संपत्ति और उसके स्तर का लेखा-जोसा कर सकें, व्यक्तिगत एवं सामाजिक सूचनाएँ उन तक पहुँचाई जा सकें, परस्पर सुख दुःख में सहायता दी जा सके। लेकिन पद्मावती पुरवाल समाज में अब तक इसकी कोई व्यवस्था नहीं थी । समाज एक लम्बे अर्से से इसकी आवश्यकता महसूस कर रही थी । प० पु० परिषद्, प० पु० महासभा एवं प० पु० पंचायत आदि अनेक जातीय संस्थाओं ने इस जाति को अपनी सेवा का क्षेत्र बनाया और सबने अपने-अपने ढंग से काम किया, सभाओं के अधिवेशन किये, परन्तु उक्त आवश्यकता को कोई पूरा नहीं कर सका ।
SR No.010071
Book TitlePadmavati Purval Jain Directory
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugmandirdas Jain
PublisherAshokkumar Jain
Publication Year1967
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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