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प्रथम परिच्छेद सिंहसेन, १५. "भानुः-भाति त्रिवर्गेण"-शोभे है जो अर्थ, काम अरु धर्म करके सो भानु, १६. "विश्वसेनराटविश्वव्यापिनी सेनाऽस्येति विश्वसेनः स चासो राट् च"जगत में व्यापने वाली है सेना जिसकी सो विश्वसेन, इस का राज् के साथ समास होने पर विश्वसेन राट्, १७. "सूरःतेजसा सूर इव"-तेज करके जो सूर्यसमान सो सूर, १८. "सुदर्शन:-शोभनं दर्शनमस्य" भला है दर्शन जिसका सो सुदर्शन. १६ “कुम्भः गुणपयसामाधारभूतत्वात् कुम्भ इव"-गुणरूप पानी का आधार भूत होने से कुम्भ की तरे कुम्भ, २०. "सुमित्रः-शोभनानि मित्राण्यस्य"-भले हैं मित्र जिस के सो सुमित्र, २१. "विजयः-विजयते शत्रूनिति"जीता है शत्रुओं को जिसने सो विजय २२. "समुद्रविजयःगाम्भीर्येण समुद्रस्यापि विजेता"-गाम्भीर्य करी समुद्र को भी जीतने वाला समुद्र विजय, २३ "अश्वसेनः-अश्वप्रधाना सेनास्य"-घोडों करी प्रधान है सेना जिसकी सो अश्वसेन, २४. "सिद्धार्थः~-सिद्धा अर्थाः पुरुषार्था अस्य"सिद्ध हुये हैं अर्थ-पुरुपार्थ जिसके सो सिद्धार्थ । ए ऋषभ
आदि चौबीस तीर्थङ्करों के क्रम करके चौवीस पिताओं के नाम कहे हैं। अथ चौवीस तीर्थङ्करों की माताओं के नाम लिखते हैं:
१. "मरुदेवा-मरुद्भिर्दीव्यते स्तूयते [पृषोदरातीर्थकर मातनाम दित्वात् तलोपः ] मरुदेव्यपि"-देवताओं
करी जिसकी स्तुति की गयी सो मरुदेवा,