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जैनतत्त्वादर्श
*"अप्रकीर्णप्रसृतत्त्वम्" - सुसम्बद्ध होकर प्रसरना अथवा जिस में असंबद्धाधिकार तथा अतिविस्तार नहीं, १८. "अस्वश्लाघान्यनिन्दता” – आत्मोत्कर्ष तथा परनिन्दा करके वर्जित, १६. “आभिजात्यम् ” - प्रतिपाद्य वस्तु की भूमिकानुसारिपना, २०. S" अतिस्निग्धमधुरत्वम् " - घृत गुडादिवत् सुखकारी, २१. "प्रशस्यता" - ऊपर कहे जो गुण तिनकी योग्यता से प्राप्त हुई है श्लाघा जिसे २२. “अममवेधिता" परके मर्मका जिसमें उघाड़ना नहीं, है, २३. “औदार्यम्” – जिसमें अभिधेय अर्थ का तुच्छपना नहीं, २४. "धर्मार्थप्रतिबद्धता " - धर्म और अर्थ करके संयुक्त २५. “कारकाद्यविपर्यासः" - जिसमें कारक, काल, वचन और लिङ्गादि का विपर्यय नहीं, २६. "विभ्रमादिवियुक्तता" - विभ्रमवक्ता के मन की भ्रान्ति तथा विक्षेपादि दोष रहितपना २७. “चित्रकृत्त्वम्”- उत्पन्न करा है अछिन्न ( निरन्तर ) कौतूहलपना • जिसने १८. “अद्भुतत्वम्" - अद्भुतपना २९. “अनतिविलम्बिता " - अतिविलम्ब रहितपना, ३०. : " अनेकजाति वैचित्र्यम्"'जातियां - वर्णन करने योग्य वस्तु स्वरूप वर्णन - उनों का आश्रय ३१. “आरोपित विशेषता " - वचनान्तर की अपेक्षा करके स्थापन किया गया विशेषपना, ३२. “सत्त्वप्रधानता"
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* जो सुसम्बद्ध होकर फैलता है अथवा जिसमें असम्बद्ध अधिकार • और अतिविस्तार का अभाव होता है ।
$ जो मृदु और मधुर होता है ।
1 जिसमें विविध वर्णनीय विषयों का निरूपण होता है ।