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________________ ४२१ पंचम परिच्छेद से जीव पीछे कही हुई छे पर्याप्ति पूर्ण करता है, सो पर्याप्त नामकर्म । ३२. जिस के उदय से प्रत्येक-एक एक जीव के एक एक शरीर होता है, सो प्रत्येक नामकर्म । ३३. जिस के उदय से जीव के हाड़ आदि अवयव स्थिर निश्चल होते हैं, सो स्थिर नामकर्म। ३४ जिस के उदय से जीव के शिर प्रमुख अवयव शुभ होते हैं, सो शुभ नामकर्म । ३५. जिस के उदय से जीव सौभाग्यवान होता है, सो सुमग नामकर्म । ३६. जिस के उदय से जीव का स्वर कोकिलावत् रमणीक होवे, सो सुस्वर नामकर्म । ३७. जिस के उदय से जीव का उपादेय वचन होवे-जो कुछ कहे, सो हो जावे, सो आदेय नामकर्म । ३८. जिस के उदय से जीव की विशिष्ट कीर्तियश जगत् में विस्तरे-फैले, सो यशोनामकर्म । ३६. जिस के उदय से जीव की चौसठ इन्द्र पूजा करते हैं, अरु उपदेश द्वारा धर्म तीर्थ का कर्ता होवे, सो तीर्थंकर नामकर्म । ४०. तिर्यंचों का आयु । ४१. मनुष्यायु । ४२. देवायु । आयु उस को कहते हैं, कि जिस के उदय से जीव तिर्यंचादि भव में जाता है। जिस से यह पूर्वोक्त तीन आयु की जीव को प्राप्ति होती है, सो तीन आयु की प्रकृति जाननी । यह वैतालीस प्रकार करके पुण्य का फल भोगने में आता है । ४. अथ चौथा पापतत्त्व लिखते हैं। पाप उस को कहते हैं, कि जो आत्मा के आनंद रस को पीवे, अर्थात् नाश करे । यह पाप जो है, सो पुण्य से विपरीत, नरकादि फल का
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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