________________
४१६
जैनतत्त्वादर्श से नरकादि गतियों में जीव जाते हैं, अरु सुख दुःख का फल भोगते हैं । इन निमित्तों के विना फल का दाता अन्य ईश्वरादिक कोई भी नहीं । जेकर कोई वादी इन पांचों निमित्तों के समवाय को ईश्वर माने, तब तो हम भी उस ईश्वर को कर्त्ता मान लेवेगे। क्योंकि जैनमत की तत्त्वगीता में लिखा है, कि अनादि द्रव्य में जो द्रव्यत्व शक्ति है, सोई सर्व पदार्थों को उत्पन्न करती है, और लय भी करती है । सो शक्ति चैतन्याऽचैतन्यादि अनंत स्वभाव वाली है, तिस को कर्त्ताईश्वर मानने से जैनमत की कुछ भी हानि नहीं है।
३. अथ पुण्यतत्त्व लिखते हैं-प्रथम तो पुण्य उपार्जन करने के नव कारण हैं, उक्तं च स्थानांगसूत्रेः
अन्नपुण्णे पाणपुण्णे वत्यपुण्णे लेणपुण्णे सयणपुण्णे मणपुणे वयपुण्णे कायपुण्णे नमोक्कारपुणे। [ठा०६ सू० ६७६] व्याख्याः -१. पात्र के प्रति अन्न का दान करने से
तीर्थकर नामादि पुण्य प्रकृति का जो बंध पुण्य तत्त्व होवे है, तिस का नाम अन्न पुण्य है । ऐसे ही का स्वरूप २. पीने का जल देवे, ३. वस्त्र देवे, ४. रहने
' को स्थान देवे, ५. सोने बैठने को आसन देवे, ६. गुणिजन को देख कर मन में हर्ष करे, ७. वचन करके गुणिजनों की प्रशंसा करे, ८. काया करके पर्युपासन अर्थात् सेवा करे और गुणिजन को नमस्कार करे। तथा