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नतत्त्वादर्श
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ग्रन्थों का
प्राकृत वा संस्कृत भाषा में हैं । सो अब जैन लोगों के पढ़ने में उद्यम के न करने से उन अति उत्तम अद्भुत आशय लुप्तप्राय हो रहा है । सो कितनेक भव्य जीवों की प्रेरणा से तथा स्वकर्मनिर्जरा के आशय से, जिनको प्राकृत वा संस्कृत पढ़नी कठिन है, तिनों के उपकारार्थ देव, गुरु और धर्म का स्वरूप किञ्चित् मात्र इस भाषाग्रन्थ में लिखते हैं ।
सर्व श्रीसंघ से नम्रतापूर्वक यह विनति है, कि जो इस ग्रन्थ को पढ़ें, सो जहां मैं ने जिन मार्ग से विरुद्ध लिखा हो, तहां यथार्थ लिख देवें । यह मेरे ऊपर बड़ा अनुग्रह होगा । इस ग्रन्थ के लिखने का मेरा मुख्य प्रयोजन तो यह है, कि जो इस काल में बहुत नवीन मत लोकों ने स्वकपोलकल्पित प्रगट करे हैं तथा * अङ्गरेज़ों की और मुसलमानों की विद्या पढ़ने से तथा अनेक प्रकार के मत मतान्तरों की बातें सुनने से, अनेक भव्यजीवों को अनेक प्रकार के संशय उत्पन्न हो रहे हैं; तिन के दूर करने के वास्ते इस ग्रन्थ का प्रारम्भ किया है।
* पाठकों को इस बात का ध्यान रहे, कि इस लेख से स्वर्गीय आचार्य श्री ज़ी अंग्रेजी तथा अरबी वा फारसी के पठन पाठन का निषेध नहीं करते है | उनका आशय यही है, कि उक्त भाषाओं के अभ्यासियों के लिये उचित है, कि वे अपने धार्मिक विचार सुरक्षित रक्खें और भारतीय संस्कृति व सभ्यता का तिरस्कार करने की धृष्टता न करें ।