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जैनतत्त्वादर्श जेकर कहो कि मरणावस्था में वात पित्तादि दोषों से देह के विगुणी हो जाने से, प्राणापान के बढ़ने पर भी चैतन्य की वृद्धि नही होती है, अत एव मृतावस्था में भी देह के विगुणी होने से चेतनता नहीं रहती। यह भी असमीचीन है। जेकर ऐसे होवे, तव तो मरा हुआ भी जिंदा होना चाहिये। तथाहि-"मृतस्य दोषाः समीभवंति" अर्थात् मरण पीछे वात पित्तादि दोष सम होजाते हैं। और ज्वरादि विकार के न देखने से दोषों का सम होना प्रतीत ही होता है । अरु जो दोषों का समपना है, सोई आरोग्य है, “तेषां समत्वमारोग्य, क्षयवृद्धी विपर्यये" इति वचनात् । तब तो आरोग्य लाभ से देह को फिर जिंदा होना चाहिये, अन्यथा देह कारण ही नहीं । चित्त के साथ देह का अन्वय व्यतिरेक नहीं । जेकर मरा हुआ जी उठे, तो हम देह को कारण भी मान लेवें ।
प्रतिवादी:-यह फिर जी उठने का प्रसंग तुमारा अयुक्त है। क्योंकि यद्यपि दोष देह का वैगुण्य करके निवृत्त हो गये हैं, तो भी तिन का किया हुआ वैगुण्य निवृत्त नहीं होता है । जैसे अग्नि का करा हुआ काष्ठ में विकार अग्नि के निवृत्त हाने से भी निवृत्त नहीं होता है।
सिद्धान्तीः-यह तुमारा कहना अयुक्त है, क्योंकि विकार भी दो प्रकार का है। एक अनिवर्त्य होता है और दूसरा
* जो दूर न किया जा सके, वह 'अनिवर्त्य और जो हटाया जा सके, वह 'निवर्य' है।