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चतुच
चतुर्थ परिच्छेद करेंगे । तथा श्रौत विधि से पशुओं को मारने पर यदि स्वर्ग की प्राप्ति होती होवे, तब तो कसाई खटीक प्रमुख सभी स्वर्गवासी हो जावेगे । तथा च पठति पारमर्षाः
+ यूपं छित्वा पशून् हत्वा, कृत्वा रुधिरकर्दमम् । यद्येवं गम्यते स्वर्ग, नरके केन गम्यते ॥
[सां० का० २ की मा० वृ० में उद्धृत ] एक और भी बात है। यदि अंपरिचित, अस्पष्ट चैतन्य अनुपकारी पशुओं के मारने से त्रिदिव पदवी प्राप्त होती होवे, तंव तो परिचित, स्पेष्ट चैतन्य, परमोपकारी, माता पितादिकों के मारने से याज्ञिकों को उस से भी अधिकतर पंद की प्राप्ति होनी चाहिये ।
प्रतिवादी:-"अचिंत्यो हि मणिमंत्रौषधीनां प्रभाव" इति
* सांख्य मतानुयायी विद्वान् ।
+ साख्य कारिका की माठर वृत्ति में "यूपं" के स्थान पर "वृक्षान्" पाठ है, जो कि अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है । यज्ञ मे पशुओं को बाधने के स्तम्भ का नाम यूप है । तब वृत्तिस्थ पाठ के अनुसार इस श्लोक का भावार्थ यह है कि-वृक्षों को काट कर, पशुओं को मार और रुधिर से कीचड करके, यदि स्वर्ग प्राप्त होता है, तो फिर नरक के लिये कौनसा मार्ग है ? इस प्रकार के वैध हिंसा के निषेधक अनेक वचन उपनिपद् और महाभारत आदि सद्ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं, जिन का दिग्दर्शन मात्र परिशिष्ट नं० २ के ख विभाग में कराया गया है ।
मणि मंत्र और औषधि का प्रभाव अंचिन्त्य है।