SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 397
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५४ जैनतत्त्वादर्श तथा यह जो आप तन्मात्राओं से भूतों की उत्पत्ति मानते हैं, जैसे १. गन्ध तन्मात्रा से पृथिवी, २. रसतन्मात्रा से जल, ३. रूप तन्मात्रा से अग्नि, ४. स्पर्श तन्मात्रा से वायु, और ५. शब्द तन्मात्रा से आकाश। यह भी मानना युक्तियुक्त नहीं है। जेकर बाह्य भूतों की अपेक्षा से कहते हो, तो वो भी अयुक्त है। इन बाह्य पांच भूतों के सदा ही विद्यमान रहने से, इन की उत्पत्ति ही नहीं है । "न कदाचिदनीदृशं जगत् इति वचनातू” अर्थात् यह जगत् प्रवाह करके अनादि काल से सदा ऐसा ही चला आता है। जेकर कहोगे कि प्रतिशरीर की अपेक्षा हम उत्पत्ति कहते हैं । तिन में त्वचा, अस्थि लक्षण कठिन पृथिवी है । श्लेष्म, रुधिर लक्षण द्रव अप-जल है । पक्ति लक्षण अग्नि है। पानापान लक्षण वायु है । शुपिर अर्थात् पोलाड़ लक्षण आकाश है, सो यह भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि तिन में भी कितनेक शरीरों की उत्पत्ति पिता के शुक्र, अरु माता के रुधिर से होती है, तहां तन्मात्राओं की गन्ध भी नहीं है । अरु अदृष्ट वस्तु को कारण कल्पने में अतिप्रसंग दूषण है। तथा अण्डज, उद्भिज्ज, अंकुरादिकों की उत्पत्ति अपर ही वस्तु से होती दीख पड़ती है । इस वास्ते महदहंकारादिको की उत्पत्ति जो सांख्यों ने अपनी प्रक्रिया से मानी है, सो युक्ति रहित मानी है । केवल अपने मत के 'राग से ही यह मानना है । तथा आत्मा को अकर्ता माने हैं । तब
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy