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________________ चतुर्थ परिच्छेद नित्यता का प्रसंग होवेगा । फिर बुद्धिमान का बनाया हुआ कैसे सिद्ध करोगे ? एक और भी दूषण है। *पक्षान्तर्गत जो योगियों का सम्पूर्ण कर्मक्षय, उसमें यह हेतु प्रविष्ट नहीं होता; इस वास्ते भागासिद्ध है । क्योंकि कर्म क्षय ध्वंसाभावरूप है, उस में सत्ता और स्वकारणसमवाय का अभाव है । अतः स्वकारण सत्तासमवाय रूप कार्यत्व वहां नहीं रहता। तथा "कृतं" इस प्रत्यय का विषय भी कार्यत्व नहीं हो सकता है, क्योंकि खनन उत्सेचनादि करके 'कृतमाकाशम् ऐसे' अकार्य आकाश में भी वर्तमान होने से, यह अनैकांतिक है। अथ जेकर विकारि स्वरूप कार्यत्व मानोगे, तब तो महेश्वर को भी कार्यत्व का प्रसङ्ग होगा, अर्थात् वो भी कार्य हो जायेगा, क्योंकि जो अन्यथाभाव है, वोही विकारित्व है। जेकर कहोगे कि ईश्वर विकारी नहीं, तब तो उस में कार्यकारित्व ही दुर्घट है । इस प्रकार कार्य के स्वरूप का विचार करते हुए उस की उपपत्ति न होने से, कार्यत्व हेतु के द्वारा ईश्वर में जगत्कर्तृत्व की सिद्धि नहीं हो सकती। तथा लोक में कार्यत्व की प्रसिद्धि उस में है, जो कि कभी हो और कभी न हो, परन्तु यह जो जगत् है, सो तुमारे महेश्वर की तरे सदा ही सत्त्वरूप है । फिर यह * किंच, योगिनामशेषकर्मक्षये पक्षान्त पातिन्यप्रवृत्तत्वेन भागासिद्धोऽ यं हेतुः, तत्प्रक्षयस्य प्रध्वंसाभावरूपत्वेन सत्तास्वकारणसमवाययोरभावात् । [षद० स०, श्लो० ४६ की वृ० वृ०]
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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