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________________ चतुर्थ परिच्छेद २६१ होते है । तिन का वेद ही गुरु है, और कोई वक्ता गुरु नहीं । वे स्वयं अपने आपको सन्यस्त २ कहते हैं, यज्ञोपवीत को प्रक्षाल करके तीन बार जल पीते हैं । वोह मीमांसक दो प्रकार के हैं-एक यानिकादि-पूर्व मीमांसावादी और दूसरे उत्तरमीमांसावादी हैं। इन में पूर्वमीमांसावादी जो हैं, सो कुकर्म के त्यागी, यजनादिक पट् कर्म के करने वाले, ब्रह्मसूत्र के धारक, गृहस्थाश्रम में स्थित और शूद्र के अन्नादि का त्याग करने वाले होते हैं। इन के भी दो भेद हैं, एक *भाट्ट, दूसरे -प्राभाकर । उस में भाट्ट छः प्रमाण मानते हैं, अरु प्राभाकर पांच मानते हैं। तथा जो उत्तरमीमांसक हैं, सो वेदांती कहलाते हैं । अद्वैत ब्रह्म को ही मानते हैं । “सर्वमेवेदं ब्रह्मेति भाषते"- यह सारा विश्व ब्रह्म का ही रूप है, ऐसे कहते हैं । तथा प्रमाण देते हुए यह भी कहते है, कि एक ही आत्मा सर्व शरीरों में उपलब्ध होता है । यथा एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः। एकथा बहुधा चैव. दृश्यते जलचंद्रवत् ॥ "पुरुष एवेदं सर्व यद्भतं यच्च भाव्यमिति"। तथा आत्मा ही में लय हो जाना मुक्ति मानते हैं । इस के अतिरिक्त और कोई मुक्ति नहीं मानते । सो मीमांसक ___ * भट्ट के अनुयायी। - प्रभाकर के अनुयायी ।
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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