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चतुर्थ परिच्छेद
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यह चार प्रमाण माने हैं । अरु ? प्रमाण, २ प्रमेय, ३. संशय, ४ प्रयोजन, ५. दृष्टान्त, ६. सिद्धांत, ७. अवयव, ८. तर्क, निर्णय, १०. बाद, ११. जल्प, १२. वितंडा, १३. हेत्वा
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भास, १४ छल, १५. जानि, और १६. निग्रहस्थान, यह सोलां पदार्थ मानते हैं । इन का विस्तार बहुत है, इस वास्ते नहीं लिखा । दुःखों का जो आत्यन्तिक वियोग, तिस को मोक्ष कहते हैं । न्यायसूत्र कर्त्ता अक्षपाद मुनि, भाष्य कर्त्ता वात्स्यायन मुनि, न्याय वार्त्तिक- कर्त्ता उद्योतकर, तात्पर्य टीका - कर्त्ता वाचस्पति मिश्र, तात्पर्य परिशुद्धि कर्त्ता उदयनाचार्य, न्यायालंकार, वृत्ति-कर्त्ता श्रीकठामयतिलकोपाध्याय और भासर्वज्ञप्रणीत न्यायसार की ठारह टीका हैं, तिन में से न्यायभूषण नामक टीका, जयंतरचित, न्यायकलिका, और न्याय कुसुमांजलि आदि इन नैयायिकों के तर्क मुख्य ग्रंथ हैं ।
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वैशेषिक मत भी यहीं लिख देते हैं । वैशेषिकों का मत नैयायिकों के तुल्य ही है, परंतु इतना विशेष वैशेषिक मन है, कि इस मत वाले प्रत्यक्ष अरु अनुमान यह दो प्रमाण मानते हैं, तथा १. द्रव्य, २.
का स्वरुप
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गुण, ३. कर्म, ४. सामान्य, ५. विशेष, ६. समवाय, इन भावरूप छ तत्त्वों को मानते हैं। इन सर्व का विस्तार देखना होवे तो वैशेषिक मत के ग्रन्थों में देख लेना, तथा तपागच्छाचार्य श्रीगुणरत्नसूरि विरचित पड्दर्शन
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