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चतुर्थ परिच्छेद
२५५ रूप मानी थी, तिस प्रतिज्ञा का व्याघात होने का प्रसङ्ग हो जायगा । अरु जो पदार्थ क्षणक्षयी होता है, वो किसी का कार्य कारण नहीं हो सकता है । तथा एक और भी बात है कि जेकर नियति एक रूप होवे, तदा तिस में जो कार्य उत्पन्न होवेंगे, सो सर्व एक रूप ही होने चाहिये, क्योंकि विना कारण के भेद हुए कार्यभेद कदापि नहीं हो सकता है। जेकर हो जावे, तव तो वह कार्यभेद निर्हेतुक ही होवेगा । परन्तु हेतु बिना किसी कार्य का भेद नहीं है । जेकर अनेक रूप नियति मानोगे, तव तो तिस नियति से अन्य नानारूप विशेषण विना नियति नानारूप कदापि न होवेगी। जैसे मेघ का पानी, काली, पीली, ऊपर भूमि के सम्बन्ध विना नानारूप नहीं हो सकता है, यदुक्तं-*"विशेषणं विना यस्मान तुल्यानां विशिष्टतेति वचनप्रामाण्यातू" | तिस वास्ते अवश्य अन्य नानारूप विशेषणों का जो होना है, सो क्या तिस नियति से ही होता है, अथवा किसी दूसरे से होता है ? जेकर कहोगे कि नियति से ही होता है, तव तो एक रूप नियति से होने वाले विशेषणों की नानारूपता कैसे होवे ? जेकर कहोगे कि विचित्र कार्य की । अन्यथानुपपत्ति करके
* क्योंकि विशेषण के विना समान वस्तुओं में विशिष्टता-भिन्नता नहीं आती है।
+ कार्य का कारण के विना न होना अन्यथानुपपत्ति है, जैसे कि