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________________ રકર जैनतत्त्वादर्श द्युति करके संयुक्त सैंकड़ों विमानों में बैठ करके, सकल आकाश मंडल को आच्छादित करते हुए पृथिवी में उतर करके पूजते भये, सो भगवान् वर्द्धमान स्वामी सर्वज्ञ है। परन्तु सुगत, शंकर, विष्णु, ब्रह्मादिक नहीं; क्योंकि सुगतादिक सर्व अल्प वुद्धि वाले मनुष्य हुये हैं, इस वास्ते वो देव नहीं हैं । जेकर सुगतादिक भी सर्वज्ञ होते, तो तिन की भी इन्द्रादि देवता पूजा करते। परन्तु किसी भी देवता ने पूजा नहीं करी । इस वास्ते सुगतादिक सर्वज्ञ नहीं हुये हैं। हे जैन! यह जो तुमने बात कही है, सो अपने मत के राग के कारण कही है । परन्तु इस बात से इष्टसिद्धि नहीं होती है । क्योंकि वर्द्धमान स्वामी की इन्द्रादि देवता, देवलोक से आकर के पूजा करते थे, यह तुमारा कहना हम क्योंकर सच्चा मान लेवें? भगवान् श्री महावीर को तो हुये बहुत काल होगया है, अरु उन के सर्वज्ञ होने में कोई भी साधक प्रमाण नहीं है ? जेकर कहोगे कि संप्रदाय से एतावता महावीर के शासन से महावीर सर्वज्ञ सिद्ध होता है, तो इसमें यह तर्क होगी कि यह जो तुमारी संप्रदाय है, सो कौन जाने कि किसी धूर्त की चलाई हुई है ? वा किसी सत्पुरुष की चलाई हुई है ? इस बात के सिद्ध करने वाला कोई भी प्रमाण नहीं है । अरु विना प्रमाण के हम मान लेवें, तो हम प्रेक्षावान् काहेके ? तथा मायावान पुरुष आप सर्वज्ञ नहीं भी होते तो भी अपने आप को जगत में सर्वज्ञ रूप
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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